सफर सपने और  समर्पण का

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साध्वी नीतिप्रभा

सफर सपने और समर्पण का

तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्य परंपरा में दसवें आचार्य हुए हैं 'आचार्य श्री महाप्रज्ञजी', जिन्होंने समाज सुधार के निर्णयों के आधार पर धर्म, समाज, राष्ट्र, और विश्व मानव जाति को अपने प्रज्ञाबल से एक नई दिशा, एक नया आलोक दिया। सोई हुई मानवता को जगाकर उन्होंने एक अद्वितीय कार्य किया। उनकी साहित्यिक देन अद्भुत थी। इससे केवल तेरापंथी समाज ही नहीं, जैन समाज ही नहीं, बल्कि जैन-अजैन सभी लाभान्वित हुए हैं और हो रहे हैं।
आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के साहित्य से न जाने कितने सपनों ने साकार रूप लिया। न जाने कितनों की आँखों में अंजन आंजा होगा। न जाने कितनों के जीवन का पथदर्शक बना और बन रहा होगा। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी एक युगद्रष्टा होने के कारण नवीन समस्याओं के समाधानकर्ता, अध्यात्म और विज्ञान के समन्वयक के रूप में मानव जाति को रचनात्मक और सकारात्मक प्रतिपादन की राह दिखा गए। उनके प्रेरणा पाथेय से बहुतों ने अपने संजोए हुए सपनों को साकार रूप दिया।
'Have a big dream' – आचार्य श्री महाप्रज्ञजी फरमाया करते थे – सपने लेने हों तो बड़े लो। क्यों? इसके उत्तर में उनका चिंतन भी मिलता। जब सपने बड़े होंगे, कल्पना बड़ी-बड़ी होगी, तभी व्यक्ति उसे साकार करने हेतु अधिक परिश्रम करेगा। उसकी सुस्ती छूमंतर हो जाएगी और चुस्ती उसका सदा साथ निभाएगी। जब कल्पना ही छोटे दर्जे की होगी, तो उस कार्य के लिए चेतना प्रमादी बनी रहेगी।
मंजिल पर जब राही कदम बढ़ाता है, तो कहीं खड्डे, तो कहीं कीचड़, कहीं कंकड़, तो कहीं कठोर पत्थर, कहीं काँटे तो कहीं-कहीं फूल भी नजर आते हैं। उस समय महापुरुषों का यही संदेश होता है कि तुम उस-उस स्थान को, उस बिंदु को हाईलाइट करते जाओ जहाँ तुमने समस्याओं का सामना किया है, ताकि नए राहगीरों का उस पथ पर चलना सुगम हो जाए। सफलता की जितनी सीढ़ियाँ आपने पार की हैं, उन्हें याद कर अपने आप पर गर्व करो, ताकि भीतर का उत्साह बेकरार बना रहे तथा जवाँ बना रहे।
जब योगी पुरुष ने सपने लेने की बात कही, तो मन में सहज ही जिज्ञासा उभर आई कि क्या कभी आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने सपनों की दुनिया का सफर किया था? भीतर से जवाब मिला – शायद नहीं। मन ने प्रश्न किया – क्यों? फिर उत्तर आया – उनका अपने शिक्षा गुरु के प्रति इतना अधिक समर्पण था कि उन्हें कुछ नया करने, नया सोचने की आवश्यकता ही नहीं थी। दूसरी बात – सामान्यतः स्वप्न उसे ही आते हैं, जिसके भीतर कोई लालसा हो, कोई विचार, कल्पना हो, कोई रोग-शोक हो, कोई इच्छा या कामना हो। जिनके भीतर इच्छा, कामना, लालसा के वायरस न हों, उन्हें शायद स्वप्न न भी आते हों।
आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की जीवन-पोथी के अक्षर निर्विकल्प, अप्रमत्त थे। उनके पास स्वप्न आकर करता भी क्या? गुरुदेव के पास भय, शोक भी नहीं था। उनके पास तो केवल प्रज्ञा की और आत्म-मिलन की शर्त थी। आचार्य तुलसी के प्रति उनका जो समर्पण भाव था, जो मन का समर्पण था, यह तो कोई महान योद्धा ही कर सकता है। शिक्षा प्रदाता ने दिन को रात कहा, तो उन्होंने रात साबित कर दिखाया। आचार्य तुलसी ने समाज-सुधार के अनेक सपने लिए और आचार्य श्री महाप्रज्ञजी उनमें रंग उकेरते गए, रंग भरते गए, आचार्य तुलसी के सपनों को आकार देते गए।
तेरापंथ के आद्यप्रणेता आचार्य भिक्षु और आचार्य भारमलजी, इधर आचार्य तुलसी व आचार्य महाप्रज्ञजी की जोड़ी – जिसने भी देखी, शायद वह यह कहे बिना नहीं रह पाया होगा कि यह साक्षात वीर-गोयम की जोड़ी है, राम-लक्ष्मण की जोड़ी है, जहाँ शरीर दो थे पर आत्मा एक थी। भाग्योदय से ऐसे गुरु मिल जाएँ, तो फिर क्या अपेक्षा है शिष्य को अपनी चिंता करने की, कल्पना करने की?