धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

प्रवृत्ति के तीन साधन हैं-मन, वाणी और शरीर। मन से व्यक्ति सोचता है, वाणी से बोलता है और शरीर से अन्यान्य क्रियाएं करता है। चिन्तन, भाषा और शारीरिक क्रियाओं का नियामक और परिष्कारक तत्त्व है आत्मानुशासन।
प्रसिद्ध जैन आगम उत्तराध्ययन में उपदिष्ट है- ''वरं में अप्पा दंतो संजमेण तवेण य।'' श्रेष्ठ है कि व्यक्ति संयम और तप के द्वारा आत्मानुशासन को साधे।
क्या आत्मा पर अनुशासन किया जा सकता है? कहां है आत्मा हमारे सम्मुख? हम न उसे आंखों से देख पाते हैं, न ही उसे छू पाते हैं, फिर कैसे करें उस पर अनुशासन। आत्मा हमारी दृष्टि का विषय नहीं है। हम उस पर सीधा अनुशासन का प्रहार नहीं कर सकते। हम आत्मा को नहीं पहचानते। पर मन, वचन, शरीर और इन्द्रियों से हम बहुत परिचित हैं। इन पर नियंत्रण कर लिया जाए तो आत्मानुशासन स्वतः सिद्ध हो जाएगा।
आत्मानुशासन का अर्थ है- अपने शरीर पर अनुशासन।
आत्मानुशासन का अर्थ है- अपनी इन्द्रियों पर अनुशासन।
आत्मानुशासन का अर्थ है- अपनी वाणी पर अनुशासन।
आत्मानुशासन का अर्थ है- अपने मन पर अनुशासन।
आत्मानुशासन का हृदय है-शरीर, इन्द्रियां, वाणी, और मन को पाप या अकरणीय कार्य में प्रवृत्त न होने देना। चिरपोषित राग-द्वेषात्मक संस्कारों से अभिप्रेरित होकर मन, वाणी, इन्द्रियां और शरीर दुष्प्रवृत्त होते रहते हैं। इन पर नियंत्रण का अभ्यास करना आध्यात्मिक साधना है। अथवा औदयिक और क्षायोपशमिक भाव के संघर्ष का नाम है साधना। मोहकर्म के उदय से विषय एवं कषाय में प्रवृत्त होता है। क्षायोपशमिक भाव (चेतना की निर्मलता का अंश) या संकल्प-शक्ति के द्वारा वह क्रोध आदि निषेधात्मक भावों के उदय को विफल बनाने का प्रयास करता है। दृढ़संकल्पिता हमारे विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। भगवान बुद्ध साधनावस्थित थे, बोधि प्राप्त नहीं हुई। एक दिन उन्होंने संकल्प किया –
इहासने शुष्यतु में शरीर, त्वगस्थिमांसं प्रलयं च यातु।
अप्राप्य बोधिं बहुकालदुर्लभां, नैवासनात् कायमिदं चलिस्यति।।
बोधि प्राप्त किये बिना मैं इस आसन को नहीं छोडूंगा, चाहे मेरा शरीर सूख जाए, त्वचा, अस्थियां और मांस नष्ट हो जाएं। यह संकल्प-शक्ति की पराकाष्ठा है।
आत्मानुशासी व्यक्ति मन, वचन और शरीर को दुष्प्रवृत्त देखते ही सतर्क हो जाए और तत्काल उन पर नियंत्रण कर ले।
युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने एक घोष दिया था– ''निज पर शासन फिर अनुशासन।'' परानुशासन की अर्हता है आत्मानुशासन। जो अपने पर अनुशासन कर सकता है, वह औरों पर भी अनुशासन कर सकता है। जो अपने पर अनुशासन नहीं कर सकता वह औरों पर अनुशासन कैसे करेगा?
जो व्यक्ति अपने संवेगों और आवेगों पर नियंत्रण नहीं कर सकता, वह आत्मानुशासी नहीं हो सकता। जो आत्मानुशासी नहीं होता, उसे परानुशासन में सफलता कैसे मिल सकती है?
आत्मानुशासन की सर्वोच्च भूमिका स्थितप्रज्ञ या ठियप्पा है। भगवत् गीता का शब्द है 'स्थितप्रज्ञ' और आयारो का शब्द है 'ठियप्पा' (स्थित आत्मा)। भगवद् गीता में 'स्थितप्रज्ञ' की एक परिभाषा इस प्रकार की गई है
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ! मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञ स्तदुच्यते।।
जो व्यक्ति अपनी समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और अपने आप में संतुष्ट रहता है, वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। आयारो में निर्दिष्ट है-
एवं से उष्टियठियप्पा, अबहिलेस्से परिव्वए।