
स्वाध्याय
संबोधि
चार संज्ञाएं और उनके कारण
५४. रिक्तोवरतया मत्या, क्षुधावेद्योदयेन च।
तस्यार्थस्योपयोगेनाऽऽहारसंज्ञा प्रजायते ।।
आहारसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-
१. खाली पेट होना।
२. भोजन संबंधी बातें सुनना तथा भोजन को देखना।
३. क्षुधा वेदनीय कर्म का उदय।
४. भोजन का सतत चिंतन करना।
५५. हीनसत्त्वतया मत्या, तस्यार्थस्योपयोगेन,
भयवेद्योदयेन भयसंज्ञा च प्रजायते।।
भयसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-
१. बल की कमी।
२. भय संबंधी बातें सुनना तथा भयानक दृश्य देखना।
३. भय-वेदनीय कर्म का उदय।
४. भय का सतत चिंतन करना।
५६. चितमांसरक्ततया, तस्यार्थस्योपयोगेन,
मत्या मोहोदयेन च मैथुनेच्छा प्रजायते ।।
मैथुनसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-
१. मांस और रक्त की वृद्धि।
२. मैथुन संबंधी बातें सुनना तथा मैथुन बढ़ाने वाले पदार्थों को देखना।
३. मोहकर्म का उदय।
४. मैथुन का सतत चिंतन करना।
५७. अविमुक्ततया मत्या, लोभवेद्योदयेन च।
तस्यार्थस्योपयोगेन, संग्रहेच्छा प्रजायते ।।
परिग्रहसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-
१. अविमुक्तता निर्लोभता न होना। २. परिग्रह की बातें सुनना और धन आदि को देखना।
३. लोभ-वेदनीय कर्म का उदय। ४. परिग्रह का सतत चिंतन करना।
चार संज्ञाएं और उनके कारण
५४. रिक्तोवरतया मत्या, क्षुधावेद्योदयेन च।
तस्यार्थस्योपयोगेनाऽऽहारसंज्ञा प्रजायते ।।
आहारसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-
१. खाली पेट होना।
२. भोजन संबंधी बातें सुनना तथा भोजन को देखना।
३. क्षुधा वेदनीय कर्म का उदय।
४. भोजन का सतत चिंतन करना।
५५. हीनसत्त्वतया मत्या, तस्यार्थस्योपयोगेन,
भयवेद्योदयेन भयसंज्ञा च प्रजायते।।
भयसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-
१. बल की कमी।
२. भय संबंधी बातें सुनना तथा भयानक दृश्य देखना।
३. भय-वेदनीय कर्म का उदय।
४. भय का सतत चिंतन करना।
५६. चितमांसरक्ततया, तस्यार्थस्योपयोगेन,
मत्या मोहोदयेन च मैथुनेच्छा प्रजायते ।।
मैथुनसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-
१. मांस और रक्त की वृद्धि।
२. मैथुन संबंधी बातें सुनना तथा मैथुन बढ़ाने वाले पदार्थों को देखना।
३. मोहकर्म का उदय।
४. मैथुन का सतत चिंतन करना।
५७. अविमुक्ततया मत्या, लोभवेद्योदयेन च।
तस्यार्थस्योपयोगेन, संग्रहेच्छा प्रजायते ।।
परिग्रहसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-
१. अविमुक्तता निर्लोभता न होना। २. परिग्रह की बातें सुनना और धन आदि को देखना।
३. लोभ-वेदनीय कर्म का उदय। ४. परिग्रह का सतत चिंतन करना।