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गुणों का समवाय - 'शासनश्री' साध्वी मदनश्रीजी
हर व्यक्ति के जीवन में कुछ न कुछ विशेषताएं होती है। लेकिन वे व्यक्ति विरल होते हैं जिनमें विशेषताओं का अनुपात अधिक होता है। 'शासनश्री' साध्वी मदनश्रीजी को बीदासर चाकरी में निकट से जानने का अवसर मिला, मैंने अनुभव किया- वो गुणों की पुंज हैं। चाकरी के दौरान हम जितनी बार उनका कोई छोटा सा भी काम करते तो वे हाथ जोड़कर आधा झुक जाते और फरमाते ''कृपा करवाई, शुभ दृष्टि कराई, माइत पणो करवायो।'' यह उनकी उत्कृष्ट विनम्रता और उदारता का परिचायक है। शासनश्री जी की गायन कला विशिष्ट थी। जब वे गीत गाते तो मग्न हो जाते। वे प्राय: रोज गाते 'भीखणजी ढूंढ़ निकाल्यो ओ पावन तेरापंथ।' उनके गीत को सुनकर लगता कि वे तन्मयता और मधुरता से गाते हैं।
साध्वीश्री जी की प्रमोद भावना उत्कर्ष पर थी। किसी की विशेषता को देखते तो दिल खोलकर उसकी प्रमोद भावना भाते। सेवादायी साध्वियों के लिए बार-बार कहते 'सत्यां बहोत चोखा है, म्हारी घणी सेवा करे।' साध्वीश्री जी की गुरु भक्ति बेजोड़ थी। बार-बार फरमाते - ''आ तो आपणी पुण्याई है, आपां नै इस्या गुरु मिल्या है।'' उस समय परम पूज्य आचार्य प्रवर का चातुर्मास प्रवास छापर में हो रहा था। आचार्य प्रवर ने कालूयशोविलास व्याख्यान फरमाया। जब कोई श्रावक छापर से बीदासर आचार्य प्रवर का प्रवचन श्रवण कर आते तो वे उनसे पूछते- 'कालूयशोविलास कठै तक पहुंचग्यो' फिर उनसे सुनते और भाव-विभोर होकर फरमाते 'मैं स्वयं गुरुदेव रै मुखारविंद स्यूं सुणनो चाहूं, म्हारा कान तरस रह्या है।' दिन में कितनी ही बार गुरुदेव का स्मरण करते।
87 वर्ष की अवस्था में भी साध्वीश्री का उत्साह प्रवर्धमान था। कोई भी प्रसंग आता तो वे गीत का निर्माण करते, उसको गाने का अभ्यास करते, भावनाओं से ओत प्रोत होकर गाते।
साध्वीश्री जी की सरलता प्रशस्य थी। एक बार उन्हें सर्दी-जुकाम की शिकायत हो गई। डॉक्टर को दिखाया, शाम 5 बजे का समय था। डॉक्टर ने कहा मैं दवाई दे रहा हूं, इसे दिन में तीन बार लेना है। साध्वीश्री जी अपने कक्ष में पधारे। दिन अस्त होने में घंटे भर का समय शेष था। आपने कहा मैं दवाई की एक खुराक अभी, एक सवा पांच बजे और एक पौने छ: बजे ऐसे तीन बार लेकर फिर त्याग कर दूंगी। मैंने निवेदन किया महाराज डॉक्टर ने दवाई दिन में तीन बार लेने को कहा है, न कि घंटे में तीन बार। उन्होने मुस्कुरा कर कहा- अच्छा ठीक है ध्यान रखूंगी।
उनकी सेवा भावना अनुकरणीय थी। उन्होंने अपने अग्रणी साध्वीश्री जी और साध्वी श्री वसुमतीजी की जिस अग्लान भाव से सेवा की वह प्रेरणास्पद है।
वे व्यवहार कुशल साध्वीश्री जी थे। जो भी श्रावक-श्राविकाएं उनके दर्शन करते वे मुस्कुराकर उनका नाम लेकर उनकी वन्दना स्वीकार करते, उन्हें बतलाते।
'शासनश्री' साध्वी मदनश्रीजी का नाम लेते ही सहज ही उनकी विशेषताएं चलचित्र की भांति हमारे सामने आ जाती हैं। उन्हें लिखने के लिए न चिंतन करना पड़ता, न कलम को रुकना पड़ता, वास्तव में जीवन तो ऐसा ही होना चाहिए। एक शायर ने ठीक कहा–
'जिन्दगी ऐसी बना जिन्दा रहे दिलशाद तूं,
तू न हो दुनिया में तो दुनिया को आए याद तूं।'