
गुरुवाणी/ केन्द्र
क्षमा और शांति में नहीं रखें दुराग्रह : आचार्यश्री महाश्रमण
चार दिवसीय डीसा प्रवास का अंतिम दिन का प्रवास। जन-जन के उद्धारक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने प्रातः तेरापंथ सभा भवन डीसा में पदार्पण किया। वहां कुछ समय विराजना भी हुआ। अक्षय समवसरण में युगप्रधान आचार्यश्री ने अमृत देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि आदमी के जीवन में क्षमा का बहुत महत्व है। क्षमा एक धर्म है। जैन शासन में तो भगवती संवत्सरी का समारोह क्षमा का पर्व होता है। क्षमा का अर्थ है - सहन करना। क्षमा मांग लेना और क्षमा कर देना उदारता की स्थिति हो सकती है। शक्तिशाली होने पर भी क्षमा कर देना या क्षमा का भाव रखना बड़ी बात है। 'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।' जहां शुद्ध अध्यात्म की बात है, वहां ईंट का जवाब ईंट से नहीं, ईंट का जवाब अचित्त फूलों से दें। जैसे को तैसा न हो।
चण्डकौशिक ने भगवान महावीर को डसा पर भगवान ने उसको क्षमा कर उसे ज्ञान दिया। चण्डकौशिक को ज्ञान हुआ और वह धर्म साधना में लग गया। अध्यात्म की नीति कुछ अलग और ऊंची हो सकती है। अध्यात्म का मार्ग अलग है, संसार का मार्ग अलग हो सकता है। साधु को कोई चोट भी पहुंचा दे पर साधु उसकी कहीं शिकायत नहीं करते। साधु तो क्षमामूर्ति होते हैं। जिसके पास क्षमारूपी खड़ग है, उसका दुर्जन क्या करेगा। जहां सूखी घासपूस है, वहां आग लग सकती है। खाली मैदान में आग की चिनगारी क्या कर सकेगी। शास्त्र में कहा गया है कि वचन का प्रहार सामने से आता है, कान में शब्द पड़ते हैं, दौर्मनस्य पैदा करने वाले होते हैं। पर आदमी सोचे क्षमा मेरा धर्म है, गाली देने से गुमड़े नहीं होते। हमारे जीवन में शांति रहे। अगर अहिंसा और शांति से काम हो जाए तो हिंसा, अशांति क्यों करें।
शस्त्र को हाथ में न लेना पड़े, शास्त्रों को हाथ में लें। न्याय-नीति से सलटारा करा देवें। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अब्दुल कलाम को शांति की मिसाइल बनाने की बात बताई थी। परिवार में भी व्यर्थ विवाद न करें। क्षमा, शांति, न्याय-नीति में दुराग्रह नहीं रखना चाहिए। अणुव्रत के द्वारा गुरुदेव तुलसी ने नैतिकता-अहिंसा का संदेश दिया था। आचार्य भिक्षु जो हमारे आद्य प्रवर्तक थे, वे किस तरह विवाद को शांति से समाप्त कर देते थे। निष्पक्ष होकर बात बताने का प्रयास करें। समझाने के अनेक तरीके हो सकते हैं। दो देशों के बीच भी अहिंसा से सलटारा हो जाए। अध्यात्म के क्षेत्र में तो प्रतिकार की बात ही नहीं है। शांति से सलटारा हो जाए, इससे बड़ी क्या बात हो सकती है। हम जीवन में क्षमा को अपनाएं।
साध्वीवर्याजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि गलती न करने वाले मनुष्य और गलती न करने वाली मशीन में किसको चुनना चाहिए। मनुष्य मशीन बना सकता है। मशीन मनुष्य नहीं बना सकती। हमें मनुष्य जन्म मिला है। इसकी मूल्यवत्ता बनाए रखने का एक साधन है - शरीर। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने तीन शरीर बताए हैं - स्थूल शरीर, यशः शरीर और धर्म शरीर। यशः शरीर मरने पर भी जीवित रहता है। धर्म शरीर हमारा पुष्ट है तो हमारा औदारिक और यशः शरीर भी पुष्ट रहेगा। इसलिए हमें धर्म शरीर का पोषण करना है। हमें कषायों को मंद कर धर्म को अपनाना है। पूज्यवर के स्वागत में उपासक रतनलाल मेहता, महाराणा प्रताप स्कूल से हर्षद भाई ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। ज्ञानशाला ज्ञानार्थियों द्वारा चौबीसी के गीत की सुंदर प्रस्तुति दी गई। संगीता बोरदिया ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।