मूर्च्छा और मोह से दूर रहने की साधना है अध्यात्म : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

डीसा। 1 मई, 2025

मूर्च्छा और मोह से दूर रहने की साधना है अध्यात्म : आचार्यश्री महाश्रमण

समता के सागर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने डीसा के अक्षय समवसरण में पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाया कि यह शरीर जो दिखाई दे रहा है, वह पौद्गलिक ही है या कुछ और है? इस विषय में शरीर और आत्मा पर ध्यान देना जरूरी है। एक पुरानी नास्तिक परंपरा रही है - तद् जीव तद् शरीर, यानी शरीर और आत्मा एक ही हैं, अलग-अलग नहीं हैं। एक विचारधारा आस्तिकवाद की भी रही है - अन्य जीव, अन्य शरीर। अध्यात्म का ढांचा तभी सुरक्षित रह सकता है जब अन्य जीव, अन्य शरीर का सिद्धांत हो। नास्तिकवाद के अनुसार तो वर्तमान जीवन ही सब कुछ है। आगे कुछ नहीं है। शरीर समाप्त तो आत्मा भी नहीं। उनके अनुसार तो धर्म की अपेक्षा नहीं है। सिर्फ खाओ, पीओ और मौज करो। यह सिद्धांत भौतिकता को पुष्ट करने वाला है। यह अध्यात्म और धर्म से विपरीत विचारधारा है।
पर यथार्थ क्या है? अन्य जीव, अन्य शरीर - यह अध्यात्मवाद की बात है। आत्मा अलग तत्व है, शरीर अलग तत्व है। मृत्यु के बाद शरीर का नाश हो जाता है पर आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा तो अनंतकाल पहले थी, वर्तमान में है और अनंतकाल तक रहेगी। आस्तिकवाद विचारधारा में आत्मा को शाश्वत माना गया है। हम विचार करें तो आत्मा और शरीर अलग-अलग होने चाहिए। हम देखें कि एक आदमी हर प्रकार से सुखी है, तो एक हर प्रकार से दु:खी भी है। यह अंतर पूर्वकृत कर्मों का फल है। पूर्वजन्म की स्मृतियां यह बताती हैं कि आत्मा का अस्तित्व पहले भी था। बौद्धिकता के आधार पर कुछ निर्णय किया जा सकता है कि आत्मा है, आत्मा सुख-दु:ख की कर्ता है। जैन धर्म के शास्त्रों में ही नहीं, अन्य धर्म के ग्रंथों में भी यह बातें मिलती है।
शरीर पुद्गल है, इसके प्रति व अन्य पुद्गल पदार्थों के प्रति ममत्व नहीं करना चाहिए। ये चीजें साथ में नहीं जातीं। अध्यात्म की साधना मूर्च्छा और मोह से दूर रहने की साधना है। मैं आत्मा हूं, मुझे शुद्ध बनना है। मैं आत्मा के लिए क्या कर रहा हूं, यह चिंतन करें। आत्मा के कल्याण के लिए धर्म और अध्यात्म साधना करनी चाहिए। दो प्रकार के धर्म बताए गए हैं - समयबद्ध धर्म और समयातीत धर्म। ईमानदारी-नैतिकता समयातीत धर्म की साधना है।
जहां भी कार्य करें, व्यापार-धंधा कुछ भी करें, वहां ईमानदारी रखने का प्रयास करना चाहिए। जहां तक संभव हो सके, झूठ और चोरी से बचने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके, धार्मिक कार्यों के लिए समय निकालने का प्रयास करना चाहिए। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत के रूप में ऐसा विधान दिया है कि जहां धर्म को अपने व्यवहार के साथ ही जोड़ लिया जाए तो उसके अलग से समय भी लगाने की आवश्यकता नहीं होती है। हमारे जीवन में अध्यात्म की साधना चले। हम अच्छा काम करें। पूज्यवर की अभिवंदना में प्राची मेहता ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। डीसा ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपने आराध्य के समक्ष अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। अनिल मेहता ने गीत का संगान किया। ‘बेटी तेरापंथ की’ आयाम से जुड़ी डीसा की बेटियों ने भी आचार्यश्री के समक्ष अपनी प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।