डॉक्टर, टीचर और कल्याणमित्र साध्वी संचितयशाजी

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साध्वी जागृतप्रभा

डॉक्टर, टीचर और कल्याणमित्र साध्वी संचितयशाजी

हिन्दी साहित्य में तीन शब्द आते हैं— प्राचीन, नवीन, समीचीन।
1. प्राचीन – जिस वृक्ष में मूल सुरक्षित है लेकिन पत्ते, फल, फूल सब गायब हो गए हैं।
2. नवीन – वृक्ष में पत्ते, फल, फूल सब हैं, पर मूल से संबंध टूट गया है। ज्यादा समय तक नहीं टिकता।
3. समीचीन – जिस वृक्ष में मूल, शाखा, प्रशाखा, फल-फूल सब हैं।
साध्वीश्री संचितयशाजी का जीवन न प्राचीन था, न नवीन था, पर समीचीन था। उनके जीवन में निश्चय व व्यवहार का समन्वय था। जितनी वे आत्मार्थी थीं, उतनी ही व्यवहारिक भी। आप अपने व्यवहार के ज़रिए जहाँ कहीं, जिस किसी के साथ रहीं, उनकी बनकर रहीं। सहनशीलता, समता व सजगता ये तीन गुण ऐसे थे उनके जीवन में, जिनकी वजह से अध्यात्म व व्यवहार का बैलेंस बना रहा।
सहनशीलता – सहे बिना शुद्धि नहीं, शुद्धि बिना सिद्धि नहीं। साध्वी संचितयशाजी एक सहनशील साध्वी थीं। अंतिम समय में घोर वेदना को भी समभाव से सहन किया था।
समता – 'समया धम्म मुदाहरे मुणी — इस आगम सूक्ति को उन्होंने अपने जीवन में उतारा था। वे समत्व की धनी थीं। उनका व्यवहार सबके प्रति सम था। बड़ों की सेवा और छोटों के प्रति स्नेह व वात्सल्य का भाव रखती थीं।
3. सजगता – आप अपने प्रति पूर्ण सजग थीं। 'काले कालं समायरे' भगवान महावीर की वाणी के अनुसार उन्होंने समय पर सही निर्णय लेकर चौविहार संथारा लिया। यह उनकी सजगता का परिणाम है।
साध्वी संचितयशाजी का व्यक्तित्व निराला था। आपकी वाणी सरल, शांत और स्पष्ट थी। आपका मन प्रसन्न और पाप-भीरु था और आपका शरीर हमेशा सबका सहयोग करने को तत्पर रहता था।
वर्षों से आपके साथ रहते हुए मैंने अनुभव किया कि आप मेरी साइकोलॉजिस्ट थीं। मुझे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहती—आप मेरे मन को भली-भांति पढ़ लेती थीं और उसके अनुरूप समाधान भी देती थीं।
आप मेरी तथा हमारे वर्ग की डॉक्टर भी थीं। जब कभी किसी को जरूरत पड़ती, तब डॉक्टर के रूप में किसे कितना 'एम.जी.' टेबलेट आवश्यक है, उसी रूप में उपचार करती थीं। अर्थात पूरी श्रद्धा व आस्था के साथ स्वामीजी की गीतिकाएं, मंत्र का जाप, ध्यान, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय से हमें समाधि पहुंचाती थीं।
आप मेरी टीचर भी थीं। समय-समय पर पढ़ने के लिए मुझे मोटिवेट करना, ज्ञान प्रदान करना, सिखाना आदि।
आप मेरी कल्याणमित्र भी थीं—कल्याणमित्रा बनकर मुझे संयम व साधना में आगे बढ़ाया।
'एगो में सासओ अप्पा' — को ध्यान में रखते हुए अंतिम मनोरथ पूर्ण करने के लिए परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से चौविहार संथारा स्वीकार किया।
पूज्य गुरुदेव ने अंतिम आराधना स्वरूप आलोचना करवाई, और उन्होंने गुरु-दर्शन की भावना रखी। तब गुरुदेव ने कृपा बरसाते हुए फरमाया कि—
''अब तुम सीमंधर भगवान के साथ तार जोड़ दो।''
गुरुदेव तुलसी की वे पंक्तियाँ — 'संचित पुण्याई को नहीं आरपार हो' — इसका दर्शन हुआ। आप मुमुक्षु सरला से साध्वी संचितयशा बनीं। अपने वैराग्य, संयम में पुण्याई को संचित किया। तत्त्वज्ञान, स्वाध्याय से ज्ञान को संचित किया। सेवाभावना, विनम्रता, सहजता आदि गुणों को संचित कर अपना नाम सार्थक किया और अपना काम सिद्ध किया।
मैं साध्वी संचितयशा जी की आत्मा के प्रति शुभकामना व मंगलकामना करती हूँ कि उनकी आत्मा उत्तरोत्तर प्रगति करती हुई अपनी लक्षित मंजिल को प्राप्त करे।