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पल में विलीन, सेवा में तल्लीन : साध्वी संचितयशा
आज शब्द निशब्द हैं, जुबां बेज़ुबां है। यह अचानक कैसे हो गया? एक चमकता, मुस्कुराता ज़मीं का तारा चुपके से आसमां में समा गया। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि साध्वी संचितयशा जी इतनी जल्दी इस दुनिया से विदा हो जाएंगी। क्यों? कहाँ? कैसे? यह अनहोनी कैसे हो गई? सच में, नियति को टाला नहीं जा सकता।
'फूल मुरझा जाता है, पर खुशबू रह जाती है; व्यक्ति चला जाता है, पर स्मृतियाँ रह जाती हैं।' इस धरा पर अनेक आत्माएँ जन्म लेती हैं और समय के साथ काल-कवलित हो जाती हैं। परंतु जन्म उन्हीं का सफल होता है, जिनका व्यक्तित्व सदैव दूसरों के जीवन को नई दिशा व सही राह दिखाता है। ऐसी ही संयम जीवन जीने वाली, रत्नत्रय की आराधिका थीं— साध्वी संचितयशा जी।
साध्वी संचितयशा जी 'शासनश्री' साध्वी सोमलता जी के साथ लगभग 25 वर्षों तक तन का कपड़ा बनकर रहीं। उन्होंने उनकी खूब सेवा की तथा चित्त समाधि पहुंचाई। वह एक प्रतिभासम्पन्न तथा तत्वज्ञ साध्वी थीं।
हमारे ग्रुप की ऑल-राउंडर साध्वी थीं। मुझे उनके साथ लगभग 26 वर्षों तक रहने का सुअवसर मिला। उन्होंने मुझे प्रत्येक कार्य में अपना अनुपम तथा अतुलनीय सहयोग प्रदान किया। उनका तन दुर्बल, पर आत्मबल अत्यंत मजबूत था। वे बड़ों के प्रति समर्पित तथा छोटी साध्वियों को वात्सल्य देती थीं। उनका गुरुदेव के प्रति आत्म-समर्पण भाव गज़ब का था। जैसे सूर्यमुखी पुष्प का डायरेक्शन सदैव सूर्य की ओर रहता है, वैसे ही साध्वी संचितयशा जी गुरुदेव के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित साध्वी थीं। हर समय सेवा में तल्लीन रहने वाली साध्वी, पल में ही विलीन हो जाएंगी, ऐसा कभी नहीं सोचा था।
इस भिक्षु शासन में गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के कर-कमलों से योगक्षेम वर्ष में साध्वीश्री ने संयम रत्न को प्राप्त किया। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी तथा आचार्य श्री महाश्रमण जी की कुशल अनुशासना में संयम की साधना करती रहीं। उन्हें तीन आचार्यों तथा दो साध्वी प्रमुखाओं की विशेष कृपा प्राप्त रही।
सरलमना साध्वी श्री संचितयशा जी के बारे में युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने स्मृति सभा में फरमाया —
'साध्वी संचितयशा जी की आत्मा प्रगति करे। देवगति में सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकरों के दर्शन हो सकें तो प्रयास करें। वहाँ से प्रेरणा संदेश प्राप्त करके अगले भव में मनुष्य जन्म को प्राप्त कर, अपनी साधना करने का लक्ष्य रखें तथा मोक्षश्री का वरण करें।'
गुरुदेव के मुखारविंद से निकले वचन, साध्वी संचितयशा जी के लिए वरदान बन गए। मैं, साध्वी जागृतप्रभा जी तथा साध्वी रक्षितयशा जी, अपने प्रभो के प्रति अनंत कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
कहते हैं — सूर्य की शोभा किरणों से, जल की शोभा तृप्ति से, चाँद की शोभा शीतलता से होती है; वैसे ही साधक की शोभा संथारे से होती है। साध्वी संचितयशा जी की भी अंतिम इच्छा यही थी। जब उन्हें अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया, तभी से लेकर अंतिम सातवें दिन तक, यही शब्द दोहराती रहीं — 'मुझे भवन ले जाओ, संथारा कराओ।'अंतिम सात दिनों में असाता वेदनीय कर्मों का भयंकर उदय था। उनकी वेदना को देखने वालों का रोम-रोम कांप उठता, आँखों से आँसू बहने लगते। लेकिन उनकी समता, सहिष्णुता को सौ बार प्रणाम, नमन। गजब का साहस।
उनकी संथारे की भावना को देखते हुए उन्हें अस्पताल से गोयल फ्लैट, विलेपार्ले लाया गया। गुरुदेव की कृपा से मुझे पिछले वर्ष अग्रगण्य 'शासनश्री' साध्वी सोमलता जी और इस वर्ष साध्वी संचितयशा जी को संथारा पचखाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
साध्वी संचितयशा जी ने तेरापंथ शासन की गरिमा पर सुयश का कलश चढ़ाया है। युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी की शासना में नव इतिहास का सृजन किया तथा धर्मसंघ में अपना नाम रोशन कर दिया।
अंत में, मैं भावपूर्ण श्रद्धांजलि के साथ हार्दिक मंगलकामना करती हूँ कि साध्वी संचितयशा जी की पुण्यात्मा शीघ्र ही मोक्षश्री का वरण करे।
''तप-त्याग की रोशनी गुम हो गई कहाँ,
जहाँ में यादें हैं आपकी, मगर आप हैं कहाँ ?''