मोक्ष की साधना के लिए अनासक्ति अपेक्षित होती है : आचार्यश्री महाश्रमण
करवड़, 15 जून, 2021
जैन धर्म के पुनरुद्धारक आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: विहार कर करवड़ पधारे। ज्योतिचरण ने मंगल पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी प्रवृत्ति करता है। दिनभर में हम कितने कार्य कर लेते हैं। कभी हम बोलते हैं, कभी हम खाते हैं, कभी हम पीते हैं, कभी हम पढ़ते हैं, कभी कुछ देखते हैं, कभी कुछ सुनते हैं। कितनी प्रवृत्तियाँ एक दिन में ही एक आदमी से हो जाती हैं।
पदार्थों का उपयोग भी करते हैं। कपड़े पहनते-ओढ़ते हैं। बर्तन आदि काम में लेते हैं। लेखन के लिए पेन-पेंसिल व कॉपी-डायरी काम में लेते हैं। अखबार व पत्र-पत्रिकाएँ देखते हैं। पदार्थों को भी हम काम में लेते हैं। यह भी एक बात है कि जीवन है तो प्रवृत्ति भी सामान्यतया करनी आवश्यक होती है। प्रवृत्ति सारी की सारी छूट जाए फिर जीवनकाल भी लंबा रहना मुश्किल है।
सारी प्रवृत्ति चौदहवें गुणस्थान में छूटती है। अयोगी केवली गुणस्थान। सारी प्रवृत्ति छूटी फिर वह केवली ज्यादा जिंदा भी नहीं रहता। पाँच हस्ताक्षरों का समय है और फिर मुक्ति में चले जाते हैं। यानी प्रवृत्ति-शून्य जीवन लंबा नहीं चलता। केवली का तो ये जीवन क्या? जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाता है, जब संपूर्णतया निवृत्ति प्राप्त हो जाती है।
हमारे जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दो तत्त्वों का भी योग है। प्रवृत्ति के बीच-बीच में कुछ अंशों में निवृत्ति भी होती है। पदार्थों को हम काम में लेते हैं, प्रवृत्ति होती है। अब कर्मों का बंधन किस रूप में होता होगा। वो भी खासकर पाप कर्म का बंधन। पापकर्म के बंधन में एक महत्त्वपूर्ण बात है कि पदार्थों को काम में लेते समय या लेने से पहले-पीछे हमारे मन में आसक्ति की मात्रा कितनी है।
आसक्ति और अनासक्ति, प्रवृत्ति और निवृत्ति यह एक जोड़ा है। दो शब्द हैंउपभोग और उपयोग। उपभोग यानी आसक्ति-युक्त पदार्थों को काम में लेना। उपयोग यानी आसक्ति-मुक्त पदार्थों को काम में लेना। आदमी पदार्थों का उपभोग न करे, उपयोग तो करना पड़ सकता है। शास्त्रकार ने सूखी मिट्टी और गीली मिट्टी के गोले से यह समझाया है। सूखी मिट्टी अनासक्ति के समान है।
गीली मिट्टी आसक्ति के समान है। गीली मिट्टी जैसे दीवार से चिपक जाती है, वैसे ही पाप कर्म हमारे आसक्ति से बंध जाते हैं। अनासक्ति है तो कर्मों का बंध होगा तो भी बहुत हल्का होगा।
दो प्रकार के बंध बताए गए हैंसांपरायिक बंध और इर्यापथिक बंध। पहले से दसवें गुणस्थान के जीवों के सांपरायिक बंध होता है। 11-12-13वें गुणस्थान में जो बंध होगा वो इर्यापथिक बंध है। 14वें गुणस्थान में तो बंध है ही नहीं। बंधन वहीं होता है, जहाँ योग होता है। योग है, वहीं लेश्या है।
लेश्या और योग का भी संबंध है। इनका साहचर्य रहता है। सयोगी, सलेश्यी और सबंध ये तीनों एक समान हो गए, अयोगी, अलेश्यी और अबंध एक हो गए। सकषाय जीव के जो बंध होते हैं, वो सांपरायिक बंध होता है। जहाँ जीव अकषाय है, वहाँ इर्यापथिक बंध है। 11-12-13वें गुणस्थान में केवल साता-वेदनीय का ही बंध होता है। वहाँ आसक्ति नहीं है। कषाय के बिना होने वाले बंध को टिकने का मौका नहीं मिलता।
कषाय कर्मों को टिकाने वाला एक आश्रय-घर है। कषायवस्था में होने वाला बंध लंबा रह सकता है। हम अपने जीवन में ध्यान दें कि पदार्थों का उपयोग तो करना पड़ सकता है, उपयोग-आसक्तियुक्त सेवन न करें। पदार्थों को काम में लेना साधु और गृहस्थ दोनों के लिए होता है। धातव्य यह है कि उपयोग भले हो उपभोग न हो। आसक्ति न हो।
हम अनासक्ति के सूत्र को जीवन में स्वीकार कर लेते हैं, तो पाप कर्म के बंधन से आशा है, बहुत ही हमारा बचाव हो सकेगा। साधु को तो विचरते रहना चाहिए।
साधु कहीं भी ममत्व भाव न करे। जहाँ रहे, वहीं आनंद में रहे।
गृहस्थ भी ध्यान दे कि ममत्व को कैसे कम कर सके। परिवार में रहते हुए भी अनासक्त रहे।
‘जे समदृष्टि जीवड़ा,
करे कुटुंब परिपाल।
अंतर दिल न्यारा रहे,
ज्यों धाय रमावे बाल॥ धाय माता की तरह रहे। ‘करणी आपो आप, कुण बेटो कुण बाप।’ मेरा ज्ञान-दर्शन मेरा है। कमलप्रज्ञ की तरह निर्लेप रहे। इसी तरह परिवार, समाज, व्यापार में निर्लेप-अनासक्त रहे। आसक्ति दु:ख को पैदा करती है। अनासक्ति से दु:ख दूर या कम हो जाता है।
मोक्ष की साधना के लिए अनासक्ति अपेक्षित है। मोक्ष और मोह दोनों साथ नहीं हो सकते। दोनों विरोधी मार्ग हैं। आसक्ति छोड़ने का प्रयास करें। साथ में नहीं जाए वो मेरा कैसे हो सकता है। मेरी तपस्या, मेरे कर्म मेरे साथ जाएँगे। जो मोक्ष में साथ रहता है, वो मेरा है। हम अनासक्ति की दिशा में आगे बढ़ें।
आज करवड़ आए हैं। यहाँ के लोगों में खूब धर्म की भावना रहे, मंगलकामना।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में ज्ञानशाला की प्रस्तुति, महिला मंडल, महिला मंडल अध्यक्षा एवं श्रावक-श्राविकाओं ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।