काम और अर्थ पर धर्म का अंकुश रहना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 13 नवंबर, 2021
आगमवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में जन्म के साथ मृत्यु का गहरा संबंध है और इतना गहरा संबंध है कि जन्म है, तो मृत्यु को होना ही पड़ता है। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई जन्म तो ले रहा है, शरीर युक्त बन रहा है और मृत्यु उसकी नहीं हो, ऐसा नहीं होता है। इस तरह मृत्यु का जन्म के साथ कभी न टूटने वाला अटूट संबंध है। मृत्यु आती है, तो आदमी-प्राणी आगे चला जाता है। उसकी सारी कामनाएँ यहीं छूट जाती हैं। साथ में जाता हैतेजस
और कार्मण शरीर पर सिद्ध गति वाले जीवों को छोड़कर। आत्मा और कार्मण शरीर साथ में है, तो आगे फल भी सांसारिक अवस्था में भोगना होता है। मोक्ष में जाने वाली आत्मा अकेली जाती है, कोई शरीर वहाँ नहीं जाता है। कर्मों के साथ आदमी जाता है जैसे वृक्ष से फल टूट जाता है। वैसे ही आयु के क्षीण होने पर ये जीवन का धागा टूट जाता है। धागा टूट जाता है, तो उसको जोड़ने के लिए गाँठ दी जाती है। इसी प्रकार आदमी का आयुष्य यहाँ पूरा होता है, तो आगे फिर नया आयुष्य शुरू हो जाता है। यह स्थिति है, दुनिया की कि भोग्य वस्तुएँ साथ में नहीं जाती हैं। ऐसी स्थिति में आदमी सोचे कि जो चीजें साथ नहीं जाने वाली हैं, उनका कितना स्नेह करूँ। उनकी ओर कितना ध्यान दूँ। जो आत्मा साथ में जाने वाली है, उस पर कितना ध्यान दूँ। कार्मण शरीर पर कितना ध्यान दूँ। आत्मा और कार्मण शरीर पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। जो यहीं रह जाने वाले हैं, उन पर ज्यादा मोह क्यों करें? यह एक प्रसंग से समझाया कि आदमी जिंदा है, तभी उसका महत्त्व है। आँख बंद हो जाने के बाद आदमी भोग्य वस्तुओं को छोड़ अपने कर्मों के साथ आगे चला जाता है। कामनाएँ अधूरी भी रह सकती हैं, पूरी हो न हो। अपेक्षित कामनाओं को पालना भी नहीं चाहिए। कम कामना वाला आदमी सुखी रहता है। काम-भोगों का आकांक्षी जो आदमी होता है, वह दु:खग्रस्त हो सकता है। कृतकर्मों का फल भोगना पड़ता है, ऐसी स्थिति में आदमी पाप-कर्मों से बचने का प्रयास करें। आदमी विचार करे कि मैं जीवन में अध्यात्म और धर्म के लिए कितना समय निकालता हूँ। रोज सामायिक का कर्म चलता रहे। गृहस्थ जीवन में अर्थ, काम और धर्म चलना चाहिए। धर्म एक रथ है, काम और अर्थ इसके दो पहिए होते हैं। इन पहियों पर धर्म का अंकुश रहे। तो गाड़ी ठीक-ठाक चल सकती है, वरना अर्थ और काम उच्छृंखल और अनर्थकारी हो सकते हैं। आदमी धर्म को छोड़ दे इतना अर्थ के पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। काम का भी अतिक्रमण न हो, धर्म का अंकुश रहे। गृहस्थ को धर्म के साथ पारिवारिक और सामाजिक दायित्व पर भी ध्यान देना चाहिए। गार्हस्थ्य जीवन में भी संतुलन रहे। अर्थ और काम पर नैतिकता-ईमानदारी धर्म का अंकुश रहे, ताकि वे दोनों उच्छृंखल न हो सके। कार में ब्रेक भी हो और लाइट भी हो। धर्म ब्रेक है और धार्मिक ज्ञान लाइट है। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि आदमी में लोभ व तृष्णा के भाव जाग सकते हैं। बुद्धि जिसके पास होती है, स्मरण-शक्ति उसकी बेजोड़ हो जाती है। जिसमें कार्य में सफलता मिल सकती है। भारतीय प्रतिभा का लोहा माना जाता है। हमें शुद्ध भावों से भावित होना है। साध्वी अतुलयशा जी ने अपने गीत की प्रस्तुति दी। जैन जीवन युवा समिति, भीलवाड़ा के सदस्य पूज्यप्रवर के दर्शनार्थ पहुँचे। यश-अमन ने गीत की प्रस्तुति दी। अमृतवाणी से सुखराज सेठिया ने अपने विचार रखे। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।