उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य वज्रस्वामी

(क्रमश:) संयमनिष्ठ श्रमणों ने एक स्वर में कहा‘भगवान्! सदोष आहार (भोज्य सामग्री) हमें किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं है। आहार अनेक बार किया है। अब अनशनपूर्वक उत्कृष्ट चारित्र धर्म की आराधना में अपने-आपको नियोजित करेंगे।’
मारणान्तिक स्थिति में भी शिष्य गण का द‍ृढ़ आत्मबल देखकर वज्रस्वामी प्रसन्‍न हुए एवं विशाल श्रमण परिवार सहित वे अनशनार्थ निकटवर्ती गिरिशृंग की ओर वहाँ से प्रस्थित हुए। उनके साथ एक लघु वय का शिष्य था। बाल्यावस्था के कारण वज्रस्वामी उसे अनशन में साथ लेना नहीं चाहते थे। उन्होंने कोमल शब्दों में शिष्य से कहा
अज्ज वि तं कच्छ लहू! अच्छसु एत्थेव ताव पुरे॥411॥
(उपदेशमाला-विशेषवृत्ति, पृ0 218)
वत्स! अनशन का मार्ग बहुत कठिन है। तुम बालक हो। अब भी यहीं पुर या नगर में रुक जाओ।
आर्य वज्रस्वामी द्वारा निर्देश मिलने पर भी कष्ट-सहिष्णु उच्च अध्यवसायी बाल मुनि रुकने के लिए तैयार नहीं हुआ। अनशन-पथ की कठोरता उसे तिलमात्र भी विचलित न कर सकी। स्वेच्छापूर्वक बाल मुनि के न रुकने पर किसी कार्य के बहाने उसे एक ग्राम में प्रेषित कर ससंघ वज्रस्वामी आगे बढ़ गए। शैल शिखर पर आरोहण कर सबने देवगुरु का स्मरण किया। शिष्यों ने पूर्वकृत दोषों की आर्य वज्र के पास आलोचना की। गिरिखंड पर अधिष्ठित देवी से आज्ञा ग्रहण कर उन्होंने यथोचित स्थान ग्रहण किया। वहीं पर वज्रस्वामी और पाँच सौ श्रमण यावज्जीवन के लिए अनशन स्वीकार कर मेरु की भाँति अकम्प समाधिस्थ बने।
कार्य-निवृत्त होकर वह शिष्य लौटा, उसे संघ का एक भी श्रमण दिखाई नहीं दिया। वह खिन्‍न हुआ, मन ही मन चिंतन कियामुझे इस पंडित-मरण में गुरुदेव ने अपने साथ नहीं लिया। क्या मैं इतना नि:सत्त्व, निर्वीर्य, निर्बल हूँ? कई संकल्प-विकल्पों के साथ वह वहाँ से चला। मेरे द्वारा उनके तपोयोग एवं ध्यान योग में किसी प्रकार का विक्षेप न हो यह सोच, वज्रस्वामी जिस पर्वतमाला पर अनशनस्थ हो गए थे उसी अद्रि की तलहटी में पहुँचकर तप्त पाषाण शिला पर पादोपगमन अनशन ग्रहण कर लिया। तप्त शिला के तीव्र ताप से शिशु मुनि का नवनीत-सा कोमल शरीर झुलसने लगा। भयंकर वेदना को समता से सहन करता हुआ लघुवय मुनि उन सबसे पहले स्वर्ग का अधिकारी बना। बाल मुनि की उत्तम साधना को जैनधर्म की प्रभावना का निमित्त मान देव महोत्सव के लिए आए। देवागमन देखकर वज्रस्वामी ने श्रमण संघ को सूचित किया। अत्यंत तीव्र परिणामों से भीषण ताप-लहरी को सहन करता हुआ लघुवय मुनि का अनशन पूर्ण हो गया। लघु मुनि का अनशन पूर्ण हो जाने की बात सुनकर एक ही लक्ष्य में उद्यत सभी श्रमण क्षण भर के लिए विस्मित हुए। उनके भावों की श्रेणी चढ़ी। चिंतन चला‘बाल मुनि ने स्वल्प समय में ही परमार्थ को पा लिया है। चिरकालिक संयम प्रव्रज्या को पालन करने वाले हम भी क्या अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाएँगे?’ उत्तरोत्तर उनकी भावतरंगें तीव्रगामी बनती रहीं। रात्रि के समय प्रत्यनीक देवों का उपसर्ग हुआ। उस स्थान को अप्रतीतिकारी जानकर ससंघ वज्रस्वामी अन्य गिरिशृंग पर गए। वहाँ पर द‍ृढ़-संकल्प के साथ अपना आसन स्थिर किया। मृत्यु और जीवन की आकांक्षा से रहित उच्चतम भावों में लीन श्रमण प्राणों का उत्सर्ग कर स्वर्ग को प्राप्त हुए। अनशन की स्थिति में परम समाधि के साथ वज्रस्वामी का स्वर्गवास हुआ। विशेष प्रभावी इस घटना ने देवों को प्रभावित किया। पाँच सौ श्रमणों सहित आर्य वज्रस्वामी की समाधिस्थली गिरिमंडल के चारों ओर रथारूढ़ इंद्र ने रथ को घुमाकर प्रदक्षिणा दी, अत: उस पर्वत का नाम रथावर्त पर्वत हो गया था। आर्य वज्रस्वामी जैनशासन के महान् प्रभावी आचार्य थे। उनके स्वर्गगमन के साथ ही दसवें पूर्व की ज्ञान-संपदा एवं चतुर्थ अर्धनाराच नामक संहनन की क्षति जेनशासन में हुई। (क्रमश:)