स्मृतियों में समाया तेरा व्यक्‍तित्व

स्मृतियों में समाया तेरा व्यक्‍तित्व

साध्वी चंद्रिकाश्री जी चंद्रिका की भाँति उज्ज्वल आभा लेकर संघ धरा पर अवतरित हुई एवं अल्प समय में ही बिजली की भाँति अपनी उजली चमक दिखाकर विलीन हो गई। गौर वर्ण, विशाल ललाट, मोहक मुस्कान युक्‍त बाह्य व्यक्‍तित्व से संपन्‍न साध्वी चंद्रिकाश्री जी का आंतरिक व्यक्‍तित्व अनेक गुणों का समवाय था।
सौभाग्यशालिनी : तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित होकर गुरुकुलवास में रहने का अवसर प्राप्त करना, गुरु की निकट सन्‍निधि एवं अचिन्त्य गुरुकृपा पाना भाग्य की बात होती है। साध्वी चंद्रिकाश्री जी को यह प्राप्त हुआ। साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने कहा“इसी गुरुकृपा तो कोई सौभाग्यशाली नै ही मिलै है। चंद्रिाश्रीजी थे तो परम सौभाग्यशाली हो, गुरुदेव थां पर कित्ती महान कृपा करवा रह्या है।”
सहवास के क्षण : साध्वी चंद्रिकाश्रीजी को दीक्षित होते ही मुझे सौंपा गया। जिस दिन से वे मेरे पास आई, अनन्य बनकर रही। मेरे प्रति उनका गहरा समर्पण भाव था। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता उनकी दुनिया मेरे इर्द-गिर्द ही सिमटी हुई है। वे कोई भी काम मुझे पूछे बिना या दिखाए बिना नहीं करती। उनका सोना, उठना, बैठना, प्राय: मेरे निकट ही रहता। दीक्षित होते ही अल्प समय में उन्होंने मुझे अनेक द‍ृष्टियों से निश्िंचत बना दिया। मेरे लेखन कार्य में उनका पूरा सहयोग था। पांडुलिपि, प्रूफ-रीडिंग, प्रमाण खोजना आदि कार्य पूरे मनोयोग से करतीं। उनके समीक्षात्मक सुझाव बड़े उपयोगी होते। उनकी हस्तलिपि कलात्मक, अक्षर सुंदर व लेखन की गति अच्छी थी। गायन कला अच्छी थी। उसके साथ-साथ कंठ मधुर एवं गीत रचना में सौष्ठव था। उनमें प्रमोद भावना का गुण विशेष रूप से देखने को मिला। उनका स्वभाव विनोदी था।
पापभीरूता : वे पापभीरू थीं। हम जहाँ भी प्रवासित होते वे स्थान का बारीकी से प्रतिलेखन करतीं। कहीं चींटियों के बिल, लटें, दीमक, काई आदि तो नहीं हैं। वे खिड़की, दरवाजा आदि खोलने-बंद करने में बड़ी सावधानी रखती। कहीं छिपकली, तितली, मच्छर या अन्य कोई जीव मर न जाए। जब कभी मार्ग में अधिक जीवों की संभावना होती तब साधना रोककर रजोहरण, प्रमार्जनी या वस्त्र खंड से एक तरफ कर फिर आगे बढ़ती।
संयम की चेतना : वे लंबी तपस्या नहीं करती थी, लेकिन तपस्या के प्रति आकर्षण था। एकासन, आयंबिल, उपवास आदि का क्रम बराबर चलता था। उनके आहार का विशेष संयम था। गरिष्ठ, तले हुए एवं फास्ट फूड आदि पदार्थों से पूरा परहेज था।
प्राय: वर्ग की साध्वियों को वे ही आहार परोसा करती थीं। उनकी परोसने की अपनी कला थी।
उनके व्यक्‍तिगत कार्यों में पानी का बहुत संयम था। साधु जीवन के आवश्यक पदार्थों को जाँचने से पूर्व वे उनकी उपयोगिता पर द‍ृष्टि रखती थी।
श्रमनिष्ठा : वे श्रमशील थी। साधु जीवन के उपयोगी हर कार्य सीखने की एवं उसमें कौशल प्राप्त करने की उनमें गहरी तड़फ थी। जिस कार्य में जो साध्वियाँ निष्णात थी वे सीखने के लिए उनके पास पहुँच जाती। उन्होंने मुखवस्त्रिका साध्वी चंदनबाला जी से, कमल निकालना साध्वी कल्पलता जी से, पात्र के कांटी लगाना मेरे से, रजोहरण का पोटा, नाकी, डोरी, सांकली आदि साध्वी कुलविभाजी से सीखे। वे राज के कार्य निष्ठा व उत्साह के साथ करतीं। जब वे राज के उपकरण धोकर देती तब प्राय: साध्वी सुषमाकुमारी जी कहतींचंद्रिकाश्री जी के धोए हुए उपकरण बहुत साफ और व्यवस्थित होते हैं। जब काम सामने होता तब उनके लिए खाना, पीना, सोना, पढ़ना सब गौण हो जाता। वे दिन में लेटकर बहुत कम विश्राम करतीं। शरीर से वे कोमल थीं लेकिन काम में जुझारू थीं। कड़े से कड़ा और बड़े से बड़ा लोच वे अकेली कर लेती।
स्वच्छता प्रेमी : स्वच्छता, सफाई और चतुराई उनके स्वभावगत थी। गोचरी, आहार-पानी आदि सब कार्यों से पूर्व वे अच्छे से हाथ धोती थीं। सहवर्ती साध्वियों को भी सफाई के लिए प्रेरित करती थीं।
तत्त्वज्ञान : तत्त्वज्ञान उनकी रुचि का विषय था। तत्त्वज्ञान की गहराई में उतरने का प्रयास करती थीं। उनको तत्त्वज्ञान की पुस्तकें तथा आगम पढ़ने का ही शौक था। अन्य पत्र-पत्रिकाएँ बहुत कम पढ़ती थीं।
‘जैन भूगोल’ उनका प्रिय विषय था। जैन भूगोल एवं तत्त्वज्ञान की कक्षाएँ लेने वाले शायद उन्हें भूल नहीं सकेंगे।
वे जिज्ञासु वृत्ति की थीं। पढ़ते समय जहाँ कहीं भी जिज्ञासा उभरती वे उनका उत्तर खोलती रहतीं।
जपनिष्ठा : वे भक्‍त हृदय थी। उनमें भक्‍ति भावना विशेष परिलक्षित होती थी। विहारों में जहाँ कहीं भी मंदिर दिखाई देता, वे मंगलपाठ अवश्य सुनाती। कठिन परिस्थिति सामने आने पर वे जप-तप से ही ठीक करने का प्रयास करती। उनका जप का क्रम नियमित था। कितनी भी व्यस्तता हो प्राय: जप नहीं छोड़ती। कभी-कभी दिन में समयाभाव के कारण जप नहीं होता तो देर रात्रि तक जप करती। उनकी नवकार मंत्र एवं भिक्षु स्वामी पर बहुत श्रद्धा थी  प्राय: उनके मुख पर नवकार मंत्र और ॐ भिक्षु का ही नाम रहता। कई साध्वियाँ उन्हें ‘भिक्षु स्वामी की भक्‍ता’ कहकर ही पुकारती।
व्याधि में भी परम समाधि : उनकी सहिष्णुता गजब की थी। असाध्य व्याधि को उन्होंने मनोबल, आत्मबल, समता और धैर्य के साथ सहन किया। बीमारी के कारण उन्हें एक क्षण तक उनके चेहरे पर प्रसन्‍नता और समता झलकती रही। वे व्याधि में भी परम समाधि में रही।
गुरु भक्‍ति : उनमें गुरु भक्‍ति बेजोड़ थी। गुरुदेव द्वारा प्रदत्त मंत्र पर उनकी अगाध श्रद्धा थी। जब कभी प्रसंग आता वे कहती, गुरुदेव का मेरे ऊपर अनंत उपकार है। साध्वी चंद्रिकाश्री जी को भीलवाड़ा आने के बाद गुरुदेव का जो कृपाप्रसाद और करुणा द‍ृष्टि मिली, श्रद्धेय महाश्रमणीजी का जो अनुपम वात्सल्य मिला, मुख्य नियोजिकाजी एवं साध्वीवर्याजी का जो स्नेह मिला और सब साध्वियों का जो आत्मीयभाव मिला वह साध्वी चंद्रिकाश्री जी के जीवन का स्वर्णिम अध्याय बन गया। लगभग 15 वर्ष साध्वी चंद्रिकाश्री जी मेरे साथ रही। वे प्राय: स्वस्थ रही। उनके दवाई लेने का विशेष काम नहीं पड़ा। दवाई के नाम से ही उन्हें परहेज जैसे था। जब से मैंने साधन लिया, एक दिन भी उन्होंने साधन चलाना नहीं छोड़ा। मुझे जहाँ कहीं जाना होता, वे स्वयं मेरे साथ चलती, दूसरों के सहारे नहीं छोड़ती। बार-बार मन में आता है वे इतनी स्वस्थ, प्रसन्‍न, विनोदी स्वभाववाली, कर्मठ, जिम्मेदार साध्वी कैसे इतनी जल्दी चली गई। खैर! यह चिंतन का विषय नहीं। वे इतनी ही उम्र लेकर आई होंगी। लेकिन इस थोड़ी उम्र में उन्होंने जो अपने व्यक्‍तित्व की छाप छोड़ी, वह आज मात्र स्मृति का विषय है शब्दों का विषय नहीं है।

साध्वी चंद्रिकाश्रीजी!
तुम अल्प समय की संयम पर्याय में अपना कर्तृत्व दिखाकर सदेह हमारे से ओझल हो गई पर तुम्हारी विशेषताएँ स्मृतियों के दर्पण में सदैव प्रतिबिंबित होती रहेंगी। अंत में तुम्हारे प्रति यही मंगलकामनातुम जहाँ भी हो तुम्हारी आत्मा उत्तरोत्तर आध्यात्मिक आरोहण करें और अपनी लक्षित मंजिल को प्राप्त करें।