एकाह्निक तुलसी-शतकम्

एकाह्निक तुलसी-शतकम्

(क्रमश:)
(90) परन्तु मम संकल्पो, भूत्वाऽहं च भवद्सम:।
द्रक्ष्यामीति भवन्तं यद्, भवानासीत्, कियान् महान्॥
परंतु यह मेरा संकल्प है कि मैं आपके समान गुणवान् बनकर देखूँगा कि आप कितने महान् थे।

(91) भवान् प्रत्यक्षरूपेण, विद्यमानस्तु किन्तु नो।
भवतोष्टा स्वछायाऽस्यां, पृथिव्यामेव चोत्सुका॥
आप भले ही प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान नहीं है, परंतु आपने इस पृथ्वी पर अपनी उत्सुक छाया को हमारे लिए यहीं छोड़ दिया।

(92) सा छायाऽस्ति महात्मानो श्रीमहाश्रमणस्य हि।
आकार ज्ञानमत्याङ्गादय: सर्वभवद्सम:॥
वह छाया है परम पूज्य महात्मा महाश्रमण की, जो आकार से, ज्ञान से मति से और शरीर से भी आपके ही समान है।

(93) अन्यान्यविस्मयेष्वेव, याऽस्ति महद्विशेषता।
यद् भवन्तौ महान्तौ च, झूमरनंदना उभौ॥
अन्यान्य आश्‍चर्यों में जो सबसे बड़ी विशेषता है वह यह है कि आप दोनों ही झूमरनन्दन है।

(94) अहं स्वर्गादपीक्षिष्येऽवादीत् भवान् स्वकां कृतिम्।
कथमनुभवन् द्रष्ट्वा, भवन्त: भवत: कलाम्॥
आपने अपने कृति आचार्यश्री महाश्रमण को कहा था कि “मैं तुम्हें स्वर्ग से भी देखूँगा।” तो आप अपनी कला को देख कैसा अनुभव कर रहे हैं?

(95) भवन्ती पुनरावृत्ति:, कार्याणां भवतो यत:।
प्रकरिष्यति नम्रस्तु, शिष्योऽनुसरणं गुरो:॥
आपके कार्यों की पुनरावृत्ति हो रही है, क्योंकि विनम्र शिष्य तो गुरु का ही अनुसरण करेगा।

(96) पदायापि द्विवर्षस्य, विवदन्ति परस्परम्।
त्यक्‍तं सहजरूपेण, वर्षाणां तु पदं कथम्॥
लोग द्विवर्षीय पद के लिए भी झगड़ते हैं, तो आपने अपने 57 वर्षों के पद को इतनी सहजतया कैसे तज दिया?

(97) प्रतिष्ठा च पदं सर्वाद् भयङ्करं च मादकम्।
किन्तु सर्वप्रप×चाया, भवान् मुक्‍तोऽभवत् कथम्॥
प्रतिष्ठा और पद दुनिया के सबसे खतरनाक और नशीली चीजें हैं, किंतु आप इन प्रपंचों से कैसे मुक्‍त रहे?

उपसंहार
(98) न शब्देषु तु भावेषु, काव्यस्य महनीयता।
अतो भावान् प्रगृह्नन्तु, कोविदान् मे निवेदनम्॥
काव्य की महनीयता शब्दों में नहीं भावों में होती है, अत: विज्ञों से मेरा निवेदन है कि वे भावों को ग्रहण करें।

(99) द्विशैलपूर्णनासत्ये, द्वितीये शुक्लकार्तिके।
शतकैकाकिं पूर्णं, जातमस्मिन् शुभे दिने॥
वि0सं0 2077, कार्तिक शुक्ला द्वितीया के दिन मैंने यह एकाहि्वक (एक ही दिन में बनाया गया) शतक पूर्ण किया।

(100) मयादर्शतुलसीजन्मदिवे वाशीनिवेशने।
सिद्धेन रचितं काव्यं, तुलसीशतकं शुभम्॥
मेरे आदर्श गणाधिपति श्री तुलसी के जन्मदिवस पर वाशीनगर में मुनि सिद्ध कुमार ‘क्षेमंकर’ (मेरे) द्वारा रचित यह तुलसी-शतकम्।

(समाप्त)