साध्वी चंद्रिकाश्री जी के प्रति आध्यात्मिक उद्गार
‘साध्वी चंद्रिकाश्री जी’ इस नाम के साथ ही मानस पटल पर एक दृढ़ मनोबली, उत्साही, श्रमशील, जिम्मेदार और भक्तहृदया साध्वी का रेखाचित्र उभर आता है। उनके जीवन में मैंने अनेक विलक्षणताओं का दर्शन किया। उनके भीतर अपने आराध्य के प्रति अप्रकंप श्रद्धा थी तो सिद्धांत और तत्त्व को समझने के लिए बेजोड़ तर्क क्षमता। वे शहरी परिवेश में पली-पुसी पर भौतिकता के प्रति बिलकुल भी आकर्षण नहीं था। वे शरीर से सुंदर और सुकोमल थी पर श्रम में जुझारू। वे संवेदनशील स्वभाव वाली थी पर परिस्थितियों को शौर्य और पराक्रम के साथ झेलती थी। वे अवस्था से युवा थी पर अनुभवों से प्रौढ़। वे प्राय: नए उपकरणों का उपयोग नहीं करती, पर जीवनशैली में नवीनता थी। एक ओर उनमें संकोचवृत्ति थी तो दूसरी ओर स्वाभिमान की सुरक्षा के लिए रजपूती खून। उनके मन में गुणों के प्रति प्रमोद भाव और उपकारी के प्रति अत्यंत कृतज्ञभाव रहता। उनके कार्यों में स्वच्छता और स्फूर्ति दोनों का समवाय था। उनकी चेतना अध्यात्म से भावित थी अत: वे संघर्षों से अप्रभावित रही। दीक्षा लेने के बाद मुझे उनके साथ बहुत करीबी से रहने का मौका मिला। वे हमारे वर्ग की जिम्मेदार साध्वी थी। वे बड़ी कुशलता से जिम्मेदारियों का निर्वहन करतीं। वे मेरे लिए एक रत्नाधिक साध्वी थी और उन्होंने मुझे हमेशा हर दृष्टि से निश्चिंत रखा। वे मेरे स्वास्थ्य का ध्यान रखती तो मानसिक प्रसन्नता और चित्त समाधि में भी योगभूत बनी रहती। उन्होंने मुझे साधुचर्या के कार्य तो सिखाए ही, साथ ही साथ दक्षता हासिल करने के लिए संप्रेरित भी किया। जब भी उनके पास तत्त्वज्ञान संबंंधी जिज्ञासाएँ रखतीं तो वे सटीक और प्रामाणिक समाधान देती। वे स्वयं की साधना और विकास तथा जिनप्रभाजी महासतियांजी की सेवा, समाधि, स्वास्थ्य आदि के साथ-साथ मेरे जीवन-निर्माण के लिए भी बहुत प्रयत्नशील थी। चैन्ने चतुर्मास में जब ‘महाप्रज्ञ श्रुताराधना पाठ्यक्रम’ की योजना आई तब उन्होंने कहा‘प्रबुद्धयशाजी! तुमको तो यह पाठ्यक्रम करना ही है। मेरी मानसिकता स्वतंत्र अध्ययन करने की थी परीक्षाओं में आबद्ध होने की नहीं। पर उनकी इच्छाशक्ति दृढ़ थी अत: उन्होंने मुझे पाठ्यक्रम से जोड़ ही दिया। उन्होंने मुझे केवल जोड़ा ही नहीं वे स्वयं ही अध्ययन सामग्री की व्यवस्था करती। मुझे अध्ययन के लिए पूरा अवकाश देती। मेरे अध्ययन की पूरी जानकारी रखती और समय-समय पर टेस्ट भी लेतीं। प्राय: वे मेरी हर क्रिया का बारीकी से ध्यान रखती। वे जहाँ मुझे अच्छाइयों के लिए प्रोत्साहित करती वहीं छोटी से छोटी गलती पर अंगुली निर्देश करने से भी नहीं चूकती। जब कभी वे मुझे आलस्य या प्रमाद में देखती तो कोई न कोई लक्ष्य दे देती। वे मेरे गीत और भाषण की बहुत अच्छी समीक्षा करती और उपयोगी सुझाव देती। एक सहवर्ती साध्वी के विकास के लिए इतना प्रयत्न करना, उनकी उदारता का परिचायक है।
साध्वी चंद्रिकाश्री जी ने अपने जीवन को अनेक गुणों से सजाया, संवारा और उत्साह तथा उपलब्धि के साथ जीया। हम प्राय: प्रतिदिन ‘तेरापंथ प्रबोध’ का संगान करते। जब ‘मन की मजबूती कर देखे वो पार हो’ इस पंक्ति को गाते तब उनकी भावभंगिमा में एक अलग ही जोश देखने को मिलता। लगभग साढ़े नौ वर्षों में मैंने अनुभव किया उनका मनोबल विलक्षण था। दीक्षा से पूर्व अपने संसारपक्षीय पिताजी श्री विजयराजजी मरलेचा को संथारे का प्रत्याख्यान करवाना उनके मनोबल का अद्भुत उदाहरण है। विहारों में आँधी हो या वर्षा, प्रचंड धूप हो या लंबा रास्ता कंधों पर बोझ हो या साधन चलाना हो, घने जंगल हों या पहाड़ी खाइयाँ, संकीर्ण गलियों में पशुओं का भय हो या विशाल राजपथ पर वाहनों की आवाजाही, वे बड़ी निर्भीकता और आनंद के साथ कदम बढ़ाती थी। जब हम उनकी चिकित्सा की दृष्टि से मुंबई में थे तब एक बार रात्रि में उनका ब्लड प्रेशर बहुत ज्यादा घट गया। स्थिति गंभीर थी, खतरे से खाली नहीं थी। डॉक्टर और ज्ञातिजनों ने बलपूर्वक उनको कहासाध्वीश्री जी! आप प्रायश्चित्त ले लेना, पर अभी आपको गोली लेनी जरूरी है, अन्यथा कुछ भी अनहोनी घटित हो सकती है। साध्वी चंद्रिकाश्री जी ने उस समय पूरी दृढ़ता और शक्ति के साथ कहाभले कुछ भी हो जाए मैं रात्रि में मुँह से गोली आदि कुछ भी नहीं लूँगी। मेरे त्याग है। आप लोग चिंता मत करो। गुरुदेव की कृपा और भिक्षुस्वामी के जाप से सब कुछ ठीक हो जाएगा। हम साध्वियाँ उनके साथ पूरी तन्मयता से जप करने लगीं और लगभग डेढ़-दो घंटे बाद उनका ब्लड प्रेशर सामान्य हो गया। वे हमेशा कहतीं ‘यदि हमारे हौंसलों में जान है तो हर मुश्किल आसान है। हमें परिस्थितियों के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए, अपने पुरुषार्थ को चौगुना करना चाहिए।’ इसी आत्मबल और मनोबल का परिणाम था कि वे असाध्य बीमारी में भी मुंबई जैसे चिकित्सा क्षेत्र को छोड़कर गुरुचरणों में पहुँच गईं। उनके मनोबल और आत्मबल का मुख्य आलंबन था भिक्षुस्वामी और गुरुदेव पर अटूट श्रद्धा। उन्हें गुरुसन्निधि और गुरुसेवा के साथ जो गुरुकृपा और श्रद्धेया महाश्रमणी जी का जो अपार वात्सल्य प्राप्त हुआ, वह उनके विशेष सौभाग्य का सूचक है। परमपूज्य आचार्यप्रवर द्वारा प्रतिदिन दर्शन देना, मंगलपाठ सुनाना और सेवा करवाना। मुनि कीर्तिकुमार जी को उनकी चिकित्सकीय व्यवस्था के संदर्भ में ‘फैमिली डॉक्टर’ के रूप में नियुक्त करना। मुझे गोचरी, पानी आदि सब कार्यों से मुक्त रखकर उनकी सेवा के लिए विशेष रूप से ‘परिचारिका’ के रूप में नियुक्त करना। साध्वी चंद्रिकाश्री जी की सेवाभावना को देखकर उन्हें तीन साल की चाकरी के संघीय ॠण से मुक्त करना। दवाई, स्वास्थ्य, जप, स्वाध्याय आदि की बार-बार पृच्छा तथा स्वास्थ्य लाभ के लिए अनुप्रेक्षा करवाना। आत्म-कल्याण की दृष्टि से आधा घंटे का आध्यात्मिक कोर्स देना तथा आलोयणा-आराधना आदि करवाकर उनकी भावना को पूर्ण करना परमपूज्य आचार्यप्रवर की असीम कृपा की ही फलश्रुति है। गुरुभक्ति और गुरुशक्ति का ही प्रभाव था कि वे परम समाधि का अनुभव करती रहीं।
साध्वी चंद्रिकाश्री जी का मेरे ऊपर अतिरिक्त उपकार है। मेरे जीवन निर्माण में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उनका सहवास मेरे लिए चिरस्मरणीय है। वह पवित्र आत्मा जहाँ भी है, आध्यात्मिक समुत्थान करती रहे। अंतहीन कृतज्ञता और शुभाशंसा के साथ-----