व्याधि से भी परम समाधि...कैसे?

व्याधि से भी परम समाधि...कैसे?

व्यक्‍ति जन्म लेता है और पीछे अपने व्यक्‍तित्व की छाप छोड़कर चला जाता है। इस जीवन में आते समय हम क्या लेकर आते हैं यह तो खोज का विषय हो सकता है पर जाते समय हम क्या लेकर जाते हैं यह हमारे परिश्रम का विषय है। इस सुखद परिश्रम के काल में व्यक्‍ति बहुत सारी परिस्थितियों से जूझता है। वह चलता है, गिरता है, लड़खड़ाता है, ठोकर खाता है पर न्सजपउंजमसल अपने गंतव्य तक पहुँच ही जाता है। हमने भी मेरु जीतना भार अपने कंधों पर उठाया है और उसे लेकर चल भी रहे हैं। अनेक परिस्थितियाँ हमारे सामने भी आती हैं, आधि, व्याधि, उपाधि आदि अनेक स्थितियाँ हैं पर फिर भी हम डटे हुए हैं, जमे हुए हैं। ऐसी ही शारीरिक व्याधि से जूझते मैंने देखा साध्वी चंद्रिकाश्री जी को। वे बहुत ही सहज, सरल, प्रसन्‍न और हँसती-खिलती रहने वाली साध्वी थी। बीमारी का आना कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है, उस बीमारी की अवस्था में समताभाव में रहना। उनको देखकर कभी यह नहीं लगा कि उन्होंने वेदना भोगी है। व्याधि आई और उन्हें हमसे दूर कर गई पर वे हमेशा समाधि में रही। बहुधा यही कहती थी कि‘मेरे निकाचित कर्मों का उदय है। कर्म किए हैं तो भोगना भी पड़ेगा।’ उनके ये शब्द सुनती तो मेरी भी आँखें भर जातीं। कभी-कभी चिंतन करती हूँ तो लगता है कि हम कर्मों के आगे कितने असहाय हो जाते हैं, चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। लगभग 9 महीने तक क्रमश: जो शारीरिक शक्‍ति का ह्रास और उनके मनोबल, आत्मबल एवं धृतिबल का विकास देखा, वह आश्‍चर्यकारी था।
प्रारंभ से लेकर अंत तक जैसे-जैसे शारीरिक पीड़ा बढ़ी वैसे-वैसे उनका मनोबल, आत्मबल, धृतिबल और उससे भी ऊपर उनका गुरुबल उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। मैंने एक दिन भी यह नहीं सुना कि यहाँ दर्द है, यह दु:ख रहा है। जब भी पूछा एक ही उत्तर पाया, ‘मैं ठीक हूँ, मुझे दर्द नहीं है। इतनी भयंकर व्याधि में भी कहीं कोई दर्द की अनुभूति नहीं हुई और उन्होंने कभी यह व्यक्‍त किया, मानो प्रत्येक कोशिश ‘भिक्षु’ शब्द से तरोताजा हो गई हो। यह कैसे हुआ इसका उत्तर तो संभवत: वे दे सकती है। सामान्यतया हम देखते ही हैं कि थोड़ी बहुत बीमारी में भी व्यक्‍ति ऊपर-नीचे हो जाता है। इस असाध्य रोग की स्थिति में भी इतनी उपशांत चेतना कैसे? यह रहस्य, रहस्य ही बनकर रह गया। इन सब स्थितियों को देखकर जब चिंतन करती हूँ तो यही समझ में आता है कि जिस व्यक्‍ति की गुरु भक्‍ति प्रगाढ़ हो, इष्टबल अडोल हो, मनोबल और आत्मबल मजबूत हो वह व्यक्‍ति किसी भी स्थिति में हार नहीं मानता। इतनी अलबेली मजबूती मैंने देखी साध्वी चंद्रिकाश्री जी में। सेवा लेने की भावना उनमें बहुत ही कम थी। पर प्रमोद भावना बहुत अधिक थी। उन्होंने सेवा बहुत कम ली पर फिर भी पूज्य गुरुदेव को वे प्राय: कहती, ‘मैं बहुत सेवा ले रही हूँ।’ और कहते-कहते उनकी आँखें सजल हो जाती। एक ओर वे धीर, गंभीर थी वहीं दूसरी ओर हम छोटों के साथ सहज और विनोदी भी हो जाती थी। यह उनके व्यक्‍तित्व का उजला पक्ष था। इस छोटे से काल में, मात्र पंद्रह वर्ष के अल्प संयम जीवन में उन्होंने जो करतब दिखाया, वह मेरे लिए बहुत प्रेरणादायी है। जीवन के हर क्षेत्र में, चाहे शिक्षा हो, सेवा हो, कला हो, अध्ययन-अध्यापन हो या अन्य कोई भी कार्य हो उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। प्राय: सब कार्यों में दक्षता हासिल की। यह उनके जीवन की महान उपलब्धि है। उनके स्थान को रिक्‍त देखकर यह कहने में कोई अतिशयोक्‍ति नहीं लगती कि हमने एक उपयोगी साध्वी को खो दिया। अनंत-अनंत कृतज्ञ हूँ परमपूज्य गुरुदेव और महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री जी के प्रति जिनकी कृपा से मुझे साध्वी चंद्रिकाश्री जी की सेवा का अवसर प्राप्त हुआ। इस दौरान जीवन का हर क्षण कितना महत्त्वपूर्ण होता है, इस सत्य को बहुत निकटता से देखने, समझने का अवसर मिला।
श्रद्धार्पण के साथ मंगलकामना करती हूँ कि वे शीघ्र ही उज्ज्वलतर से उज्ज्वलतम अवस्था को प्राप्त करें।