साँसों का इकतारा
(50)
पौरुष का कर थाम प्रगति के शिखरों पर तुम चढ़ते।
क्षितिज खोल गण में अभिनव इतिहास नया तुम गढ़ते॥
योगी बनकर कभी देव! तुम मार्मिक सत्य सिखाते
कभी दार्शनिक बन दर्शन के तथ्यों को सुलझाते
कभी तुम्हारे गीतों में कविहृदय झाँकता कोमल
किसी समय श्रद्धेय रूप में देते सबको संबल
पुण्यपुंज के साये में रहने वाले हैं विस्मित
कैसे अपने भक्तों के अंतर्मन को तुम पढ़ते॥
बालक-सा मृदुहास तुम्हारे इन अधरों पर रहता
उज्ज्वल आभामंडल से नित सुख का निर्झर बहता
अनाचार को देख तुम्हारा हृदय रहा अकुलाता
सदा सत्य के अन्वेषण में लगे रहे युगत्राता
भूत अनागत वर्तमान का रेखाचित्र बनाया
हर स्थिति में विकास के पथ पर आगे ही तुम बढ़ते॥
(51)
सिरजकर तुमको हुई उजली स्वयं जो
उस निशा का बन गया इतिहास है।
यह उजालों से भरा दामन तुम्हारा
तिमिर-तट पर ज्योति का आवास है॥
ग्रंथि नूतन आज तुमने फिर लगाई
इस सुकोमल जिंदगी की डोर में
स्वर अहिंसा को सचेतन दे रहे तुम
मुक्त हिंसा के भयानक दौर में
तृप्ति की भटकन नहीं मंजिल तुम्हारी
प्यास में ही जब तुम्हें विश्वास है॥
शांति का संदेश देते बन फरिश्ते
मनुज हर युग में पुजारी शांति का
रच रहा रंगोलियाँ सूनी धरा पर
सुन सुखद आह्वान अभिनव क्रांति का
गीत बन जाए जगत की पीर सारी
एक ही स्वप्निल सभी की आश है॥
कर रहे हैं अर्चना उजले दिवस की
नखत तारे चाँद सूरज ये सभी
दे रही दस्तक सफलता द्वार पर खुद
मनुज क्या सुर भी प्रणत देखो कभी
नई संस्कृति का सृजन होगा तुम्हीं से
सदी अगली को हुआ अहसास है॥
(क्रमश:)