भाग्यशाली आचार्यश्री भारमलजी
भारत देश की भव्य धरा पर सदा से ही संतों का सर्वोत्तम महत्त्व रहा है। जिस किसी आत्मा को संतों की सन्निधि मिलती है तो उसका भाग्य कहलाता है, संतों के पास संयम लेने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त होता है, वह उसका सौभाग्य होता है और संयमदाता के पास श्रुताराधना के द्वारा व्यक्तित्व निर्माण का अवसर मिलता है तो परम सौभाग्य होता है। मानव समाज के अभ्युदय में और विश्व के वातावरण को शांतिमय बनाने में संतों का असाधारण योगदान है। कौन कहता है मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है। अपितु वह भाग्य लेकर आता है और कर्म लेकर जाता है। इस मायने में मुनि भारमलजी भाग्यशाली थे। उन्हें प्रारंभ से ही अध्यात्म के शिखरपुरुष, आदर्श संत, परम आत्मार्थी आचार्यश्री भिक्षु की सन्निधि मिली। प्रारंभिक धर्मक्रांति से लेकर अंत तक उनके जीवन में स्वामी भीखणजी के प्रति श्रद्धा की सुगंध सुवासित रही। आस्थापुंज दीक्षा गुरु भीखण का उन पर अनवरत आशीर्वाद बरसता रहा। आचार्यश्री भिक्षु और भारमलजी की युगल जोड़ी वीर गोयम की जोड़ी को याद दिलाने वाली थी। वे दोनों महामानव दूसरों के लिए दीपक की भाँति जलते रहे। हिमखंडों की भाँति गलते रहे और सतत प्रवाही निर्झरों की भाँति प्रतिपल बहते रहे अर्थात् द्रुतगति से लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। चाहे हिमकण पड़े चाहे रजकण, चाहे वृष्टि गिरे चाहे ओले, चाहे संहस्त्रसु तपे चाहे सुधांसु झरे, चाहे पवन चले, चाहे तूफान उठे, चाहे फूल खिले, चाहे शूल मिले। अनुकूल और प्रतिकूल में तटस्थ रहे। प्रशांत सागर जैसी गंभीरता, नगाधिराज हिमालय जैसी उच्चता, पुण्य सलिला गंगा जैसी पवित्रता, सुधाकर जैसी शीतलता, ताजमहल जैसी भव्यता, प्रसून जैसी कोमलता लिए मात्र सत्य के लिए दोनों कदम हर कदम गतिमान रहे। भारमलजी ने भिक्षु के प्रति सदैव अनुत्तर श्रद्धा, अप्रतिम विनय एवं अद्वितीय समर्पण रखा। वे प्रारंभ से अद्भुत विवेक संपन्न थे। उन्हें पूछा गया, कान क्यों नहीं बिंदे तो स्पष्ट उत्तर दिया, हमारे परिवार में जिमनवार करवाने की व्यवस्था नहीं थी इसलिए नहीं बिंदाए। आचार्य भिक्षु की प्रयोगशाला में हर नियम के प्रयोक्ता थे विनम्र शिष्य भारीमालजी। एक बार स्वामीजी ने उनसे कहातुम्हारे कोई ईर्या समिति की गलती निकाले तो तुम्हें तेला करना है। भारमलजी ने प्रश्न कियाविरोधी बहुत हैं, कोई जान-बूझकर गलती निकालेगा तो? स्वामीजी ने फरमायागलती हो तो ‘इयाणिं णो खमहं, पुव्वमकासि पमायेणं’ सूत्र का आचरण कर और न हो तो कर्मोदय मानकर तेला करना। उनकी जागरूकता का परिणाम था कि जीवन में ईर्या समिति के कारण कभी तेला नहीं करना पड़ा। वे समतावान और अनासक्त थे। जब ध्यान की गहराई में उतरते तो काया का उत्सर्ग हो जाता अर्थात् शरीर की एक-एक कोशिका को निष्क्रिय बना देते। उस समय उनका मन, वाणी, श्वास और कर्म तंत्र विशेष रूप से शांत हो जाता।
वे दृढ़-संकल्पी थे। आसमान की ऊँचाइयों को छूने के लिए दृढ़-संकल्प का होना जरूरी है। व्यक्तित्व निखार एवं विकास हेतु दृढ़-संकल्प मेरूदंड का काम करता है। पिता मुनि किसनोजी जब जबरन उन्हें अपने साथ ले गए तब उन्होंने ढाई दिन चौविहार किया, यह उनके दृढ़-संकल्प का परिणाम था। सफलता का एक पायदान होता है दृढ़-संकल्प। उस समय मुनि भारमलजी के भाव थे
मैं कंचन हूँ काँच नहीं,
ले तो चाहे परीक्षा।
दु:ख की नहीं कष्ट सहने को,
मैंने ली है दीक्षा।
चाहे ठोक-बजाकर देखो,
मिट्टी मात्र नहीं हूँ।
दृढ़ बनने के लिए रखूँगा,
मन में पूर्ण तितिक्षा।
तूफानों में पलने की गहरी पाई है शिक्षा॥
वे अच्छे लिपीकार थे उन्होंने 5 लाख पद्यों का लेखन कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। मुनि भारमलजी आकाशवत् हर स्थिति में तटस्थ, मध्यस्थ रहने के अभ्यस्त थे। इतिहास कभी बातों से नहीं पुरुषार्थ की अमिट ॠचाओं से रचा जाता है।
वे हमेशा चित्त-समाधिस्थ रहे। चित्त समाधि का सूत्र है वैराग्य। वैराग्य से समाधि शुरू होती है। शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श के प्रति जितना वैराग्य उतनी समाधि। साध्य के सारे बिंदु समाधि के साधन हैं। जब वह चरम बिंदु पर पहुँचती है तो समाधि साध्य बन जाती है। आत्मा कृत कृत्य बन जाती है। उन्होंने अपने जीवन में सदैव शुद्ध साध्य को सामने रखते हुए समाधि का जीवन जीया। आचार्यश्री भिक्षु ने भी अपने अंतिम समय में कहानिरविचार संयम पालकर तुम देवगति में जाओगे तब महाविदेह में अरिहंतों, गणधरों तथा मेरे से बहुत बड़े ज्ञानी और महान संयमी अणगारों के दर्शन प्राप्त कर सकोगे। तुम स्वयं भी शीघ्र ही कर्ता-बंधनों को तोड़कर मुक्ति प्राप्त करोगे।
भारमलजी स्वामी ने युवाचार्य पद पर 28 वर्ष रहकर स्वामीजी का दिल जीता और हर कार्य में कुशल सहगामी बनकर रहे। आचार्य पद पर 18 वर्ष रहकर मेवाड़, मारवाड़, हाड़ोती, ढूंढ़ाड़ में विशेष पदयात्राएँ की। धर्म प्रचार कर अच्छा सुयश कमाया।
सं0 1848 में स्वामी भीखणजी का चातुर्मास माधोपुर में था। वहाँ की एक अच्छी तत्त्वज्ञानी महिला गुजरीबाई उनके संपर्क में आई। उसने अपने संग्रह में से स्वामीजी को पाडिहारिय (अस्थायी) रूप में आगमों की 13 प्रतियाँ प्रदान की। पहले स्वामीजी ने और फिर आचार्य भारमलजी ने भी उनका काफी उपयोग किया। 22 वर्षों पश्चात् आचार्य भारमलजी का माधोपुर पदार्पण हुआ। उन्होंने सं0 1870 का चातुर्मास वहाँ किया। तब गुजरी बाई ने आचार्य भारमलजी से कहाआपको याद होगा, आज से बाईस वर्ष पूर्व मैंने स्वामीजी को 13 आगम-प्रतियाँ दी थीं। आचार्य भारमलजी ने फरमायातुम्हारी दी हुई सभी प्रतियाँ इस समय हमारे पास ही हैं। पाडिहारिय रूप से ली हुई हैं। अत: चाहो तो तुम्हें वापस संभलाई जा सकती है। आचार्यश्री ने पुस्तकें मँगवाई और तेरह प्रतियाँ निकालकर उसके सम्मुख रख दी। गुजरीबाई ने उन सबको उलट-पुलटकर देखा तो पाया कि वे सब यथावत् हैं। वह बहुत प्रसन्न हुई व बोलीइतने दिन ये प्रतियाँ पाडिहारिय ही हुई थी, आज से मैं इन्हें स्थायी रूप से आपको प्रदान करती हूँ। सचमुच आचार्यश्री भारमलजी एक प्रभावी आचार्य थे। उनके अकंप धैर्य, अटल आत्मबल एवं मंजुल मनोबल से अनेक विपत्तियाँ हुई व उनकी जय-विजय हुई। ऐसे बहुत-से प्रसंग हैं, जो आपश्री के शासनकाल को अद्वितीयता की कोटी में रखने वाले हैं। आपश्री ने कारणवश 9 महीनों का प्रवास केलवा किया, जहाँ कुछ संलेखना का क्रम भी चला। काल ज्वर हो जाने के कारण औषधोपचार हेतु राजनगर पधारे। वि0सं0 1878 माघ कृष्णा अष्टमी, मंगलवार को प्राय: 3 प्रहर तक की मूर्च्छावस्था में शरीरांत हुआ। उन्हें लगभग 6 प्रहर का सागर तथा 3 प्रहर का चौविहार अनशन आया। 2 बैकुंठियाँ निर्मित हो गई, उसका भी अपना इतिहास है व उसकी गवाही आज भी दे रहा है राजनगर का फूटा दरवाजा। उनका दाह संस्कार भी चमत्कारी रहा, उनकी चादर जली नहीं। लोग खंड-खंड लेने के लिए टूट पड़े। आज भी लाडनूं भंडार में एक ढाई इंच का झुलसा टुकड़ा विद्यमान है।
ऐसी पवित्रात्मा को महाप्रयाण द्विशताब्दी पर शत-शत नमन।
अपने जीवन कागज पर,
लिख दी उन्होंने एक कहानी।
उसकी हर लाईन बन गई,
युग की अमर निशानी॥