आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

शरीर-प्रेक्षा हैशक्‍ति-दोहन की कला

प्रश्‍न : दोहन से आपका क्या अभिप्राय है? यदि किसी के पास शक्‍ति है तो उसे कोई भी काम में ले सकता है और शक्‍ति नहीं है तो कोई व्यक्‍ति कितना ही कुशल क्यों न हो, वह किसका उपयोग करेगा? कृपा कर आप इस कथ्य को थोड़ा स्पष्ट करें।
उत्तर : इस कथ्य को एक कहानी के माध्यम से समझा जा सकता हैएक व्यापारी व्यापार के सिलसिले में दूसरे देशों की यात्रा किया करता था। एक बार वह ऐसे देश में पहुँच गया, जहाँ गाय, भेंस आदि दूध देने वाले पशु नहीं होते थे। दूसरी बार जब वह वहाँ गया तो अपने साथ एक गाय भी ले गया। उसे देश के राजा की कृपा पाने के लिए वह उसके पास प्रतिदिन कुछ-न-कुछ उपहार भेजता। उसके उपहारों में बहुमूल्य वस्तुओं के साथ-साथ दूध, दही, मक्खन, रबड़ी, मावा, संदेश आदि खाद्य-पदार्थ भी थे। राजा को वे पदार्थ बहुत रुचिकर लगे। व्यापारी कुशल था। उसने इस माध्यम से वहाँ काफी सुविधाएँ उपलब्ध कर लीं और अपना व्यापार जमा लिया। कुछ महीनों बाद वह स्वदेश लौटने लगा तो राजा को अच्छा नहीं लगा। क्योंकि उसके चले जाने से दूध से बने पदार्थ कहाँ से आ सकते थे। अव्यक्‍त रूप से राजा ने अपनी भावना का आभास उसे दे दिया। व्यापारी ने भावी लाभ की आस में गाय राजा को भेंट कर दी और बता दिया कि वे सारे पदार्थ इसी की बदौलत प्राप्त होते थे।
व्यापारी वहाँ से विदा हो गया। राजा ने अपने कुछ कर्मकरों को गाय की सेवा में नियुक्‍त कर उन्हें निर्देश दिया कि इससे जो भी पदार्थ मिले उसे लेकर सीधे मेरे पास पहुँच जाना। कर्मकर राजा का आदेश स्वीकार कर सोने और चाँदी के पात्र लेकर गाय के पास खड़े हो गए। थोड़ी देर में गाय ने मूत्र-विसर्जन किया। एक कर्मकर ने आगे बढ़कर चाँदी का पात्र उससे भर लिया। वह उसे लेकर राजा के पास पहुँचा। पात्र में पीला पदार्थ देखकर राजा बोला‘वह तो हमेशा सफेद चीजें लाता था। शायद यह कोई खास चीज हो’, ऐसा कहकर उसने एक कटोरी भरकर होंठों से लगा ली। उस बदबूदार नमकीन पेय के दो घूँट भी गले से नीचे नहीं उतरे होंगे कि राजा बौखला उठा। वह कुछ बोले इससे पहले ही दूसरा कर्मकर सोने के थाल में गोबर लेकर आ खड़ा हुआ। राजा ने सोचाशायद यह पदार्थ ठीक हो और एक चम्मच भर गोबर मुँह में डाल दिया। राजा का मुँह इतना खराब हुआ कि उसे निगलने के बजाय थूक दिया। लोटा भर पानी मँगाकर कुल्ले करने पर भी मुँह का कसैलापन नहीं मिटा।
इस घटना ने राजा को उत्तेजित कर दिया। उसने तत्काल कुछ राजपुरुषों को आदेश दिया कि उस व्यापारी को इसी समय मेरे सामने उपस्थित करो। मेरे साथ भी यह खिलवाड़! कितना धोखेबाज आदमी है! राजपुरुषों ने व्यापारी का पीछा किया और राज्य की सीमा में ही उसे पकड़कर पुन: राजा के पास ले आए। व्यापारी एक बार तो घबराया पर जब उसे स्थिति की जानकारी मिली तो राजा और कर्मकरों की अज्ञता पर मन-ही-मन मुसकरा उठा। उसने अत्यंत विनम्र होकर कहा‘राजन्! मैं आपको धोखा दूँ, यह मैं स्वप्न में भी नहीं सोचता। फिर भी मेरा कसूर इतना है कि मैंने आपको दोहन की विधि नहीं बताई।’ राजा का आवेश तब तक शांत हो चुका था। उसने दोहन के संबंध में जिज्ञासा की तो व्यापारी ने गाय को चारा-पानी डालने और दूध दुहने से लेकर खाद्य पदार्थ बनाने तक की विधियाँ उन्हें समझा दीं। उसके बाद राजा के कर्मकरों ने गाय को अच्छे ढंग से संभाल लिया।
यह एक कहानी है। इसमें कितनी सच्चाई है? इस विश्‍लेषण में मैं नहीं जाऊँगा। पर इससे फलितार्थ यह निकलता है कि प्राप्त शक्‍ति का बोध और उपयोग हर व्यक्‍ति के बस की बात नहीं है। शक्‍ति ोत बहता रहता है और व्यक्‍ति समझ ही नहीं पाता है कि वह उसका उपयोग कैसे करे? शरीर-प्रेक्षा का एक माध्यम है आत्मा की शक्‍ति को पहचानने का। शक्‍ति को पहचानकर उसका दोहन करने वाला व्यक्‍ति साधना के क्षेत्र में बहुत ऊँचाई तक पहुँच सकता है। प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने वाला साधक शक्‍ति का दोहन करे और लक्ष्य-पूर्ति में उसका उपयोग करे। ऐसा करने के लिए दोहन की प्रक्रिया को समझना जरूरी है। जो दोहन करना नहीं जानता, वह शक्‍ति प्राप्त नहीं कर सकता।
प्रश्‍न : सीधे और सरल शब्दों में शरीर-प्रेक्षा की प्रक्रिया क्या है?
उत्तर : सबसे पहली बात हैमन का प्रत्याहार। मन को बाहर से भीतर की ओर ले जाना तथा यह अभ्यास करना कि वह अभ्यासकाल में बाहर न लौटे। इस प्रतिसंलीनता के बाद शरीर-दर्शन का क्रम शुरू होता है। पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक अथवा सिर से लेकर पैर के अंगूठे तक शरीर के प्रत्येक अवयव पर ध्यान केंद्रित किया जाए। शरीर में जो संवेदन होते हैं, प्रकंपन होते हैं, पर्याय-परिवर्तन और हलचलें होती हैं, उनका अनुभव किया जाए। आंतरिक संवेदनों को अधिक गहराई से देखा जाए। यहाँ देखने से मतलब हैअनुभव करना। आँख बंद कर देखना है। जैसे इंजेक्शन लगाया जाता है शरीर में, तो दवा बाहर से भीतर गहराई में पैठ जाती है। इसी प्रकार आंतरिक संवेदनों को पकड़ने से, राग और द्वेष से मुक्‍त भाव से उनके प्रति केंद्रित होने से चित्त अंतर्मुखी बनता है और आंतरिक विशुद्धि बढ़ती है।
प्रश्‍न : मन प्रतिसंलीनता करने से, चित्त को भीतर मोड़ने से मात्र ध्यान में एकाग्रता बढ़ती है या साधक को कोई विशेष अनुभव भी होता है?
उत्तर : अंतर्मुखता के क्षणों में जो रसानुभूति होती है वह बहिर्मुखता की स्थिति में नहीं हो सकती। सामान्यत: व्यक्‍ति सोच ही नहीं सकता कि भीतर कितनी रसकूपिकाएँ हैं, कितनी सुखद अनुभूतियाँ हैं। क्योंकि हमारा परिचय बाहरी जगत और उसके सुखात्मक संवेदनों तक ही सीमित रहता हैं आंतरिक जगत से परिचय हो ही नहीं पाता। इस अपरिचय का कारण हैराग और द्वेष की ऊर्मियाँ। जब तक वे शांत नहीं हो जातीं, आंतरिक अनुभूति नहीं हो सकती। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है
रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोन्जलम्।
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्तत्त्वंनेतरो जन:॥
जिस साधक का मन-रूपी जल, राग-द्वेष की तरंगों से चंचल नहीं है, स्थित है। वह आत्म तत्त्व को देखता है, उस तत्त्व को दूसरा व्यक्‍ति नहीं देख सकता।
हमारा चित्त जल से भरा हुआ शांत सरोवर है। सरोवर में छोटा-सा कंकर डालते ही वह अस्थिर हो जाता है, तरंगित हो जाता है। इसी प्रकार हमारा चित्त भी राग-द्वेष की तरंगों से चंचल हो उठता है। उसे शांत बनाए रखने के लिए उसका प्रवेश भीतर हो जाए, यह आवश्यक है।
शरीर-शास्त्रीय द‍ृष्टि से देखा जाए तो हमारा शरीर एक बड़ा कारखाना है। शरीर का सबसे ऊपर का हिस्सा हैचर्म। शरीर-प्रेक्षा करते समय सबसे पहले चर्म के प्रकंपन पकड़ में आते हैं। व्यान नामक प्राणधारा चर्म में ही प्रवाहित होती रहती है। उसके कारण ही वहाँ प्राणशक्‍ति की हलचलें अथवा विद्युत प्रकंपन चलते रहते हैं। उन हलचलों को, उन प्रकंपनों को पकड़कर शरीर को और अधिक गहराई से देखने पर भीतरी प्रकंपनों और संवेदनों का अनुभव स्वाभाविक-सा हो जाता है। साधक देखता जाए, गहरे में जाकर देखता जाए, केवल देखता जाए, यही शरीर-प्रेक्षा और यही अंतर्दर्शन है।
(क्रमश:)