साँसों का इकतारा

स्वाध्याय

साँसों का इकतारा

(54)

दो आँखों से परख लिया तुमने इस जंग को
क्यों सह नयनों की अब तुमको अभिलाषा।
दो नन्हे पाँवों से माप लिया हर मग को
क्यों वामन ज्यों पैर तीसरे की प्रत्याशा॥

पहरे विस्मृति के फिर भी स्मृतियाँ होती हैं
मन का सूनापन उनमें ही लीन हो रहा
भटकी हुई व्यथा को तुमने सहलाया है
इसीलिए हर प्राण-विहग बस यहीं खो रहा
तिमिर हो रहा हावी इन प्राणों के रथ पर
दिखलाओ तुम पंथ बढ़ी आलोक-पिपासा॥

संबंधों की भीड़ तुम्हारे दरवाजे पर
अमित स्नेह का ोत देखकर बढ़ती जाती
वीरानी राहों में ऊब चुकी जो आँखें
अनिमिष देख रही तुमको पर नहीं अघाती
युग्म-भुजा के स्नेह-पाश में बाँधा सबको
क्यों लक्ष्मी ज्यों चार भुजाओं की अब आशा॥

सबके संदेहों को मिटा रहे कौशल से
प्रश्‍नों की घाटी में भटक रहा मन मेरा
देख तुम्हारे विविध रूप होता है विस्मय
बतलाओ है कहाँ तुम्हारा देव! बसेरा
समाधान देते रहते हो तुम दुनिया को
पर बढ़ती जाती है क्यों मेरी जिज्ञासा॥

(55)

आत्मज्योति से दीपित आभा भारत-ज्योति प्रणम।
विश्‍वज्योति बनकर निखरो तुम ज्योतिर्मय हर याम॥

सतरंगी किरणों के रथ पर जब से चरण टिकाए
युग की झेल चुनौती तुमने नूतन सूर्य उगाए
निकट सिद्धियाँ निधियाँ सारी फिर भी तुम निष्काम॥

आस्थाओं के दरवाजों पर बंदनवार सजाए
जीवन की दुर्गम राहों पर अनगिन फूल बिछाए
पौरुष की पूजा का तुमने दिया मंत्र अभिराम॥

युग की साँसों में अब केवल आहट सुनें तुम्हारी
प्रतिबिंबित हो युग-नयनों में चितवन यह मनहारी
रहो बाँटते तरुण तेज तुम खोल नए आयाम॥

(क्रमश:)