तपस्या से समस्या का निराकरण हो सकता है : आचार्यश्री महाश्रमण
शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: विहार करके मध्य प्रदेश के नायागाँव में पधारे। महामनीषी ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि धर्म के तीन प्रकार दसवेंआलियं आगम के प्रथम श्लोक में बताए गए हैंअहिंसा, संयम और तप।
इन तीन प्रकारों में अंतिम हैतप। तपस्या से समस्या का समाधान हो सकता है। एक ओर समस्या है, दूसरी ओर तपस्या है तो कहीं-कहीं तपस्या समस्या पर भारी पड़ती है और समस्या का निराकरण करने वाली बन सकती है।
मूल समस्या तो कर्म है, उसका समाधान देने में भी तपस्या का योगदान होता है। संवर और निर्जरा दो शब्द हैं। ये दोनों आत्म-शुद्धि के उपाय हैं। संवर नए सिरे से कर्मागमन का निरोध करने वाला और निर्जरा अतीत में अर्जित पाप-कर्म का साटन करने वाला तत्त्व है।
संवर और अनागत, निर्जरा और अतीत दोनों का इस प्रकार संबंध बैठ जाता है। संवर निरोधात्मक और निर्जरा प्रवृत्यात्मक तत्त्व होता है। मुझे ऐसा लगा, दोनों में महत्त्वपूर्ण कौन है? मेरा मंतव्य है, संवर ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इसके कुछ कारण हैं। निर्जरा तो अभव्य जीव के भी हो सकती है, अकाम निर्जरा। किंतु संवर अभव्य के नहीं हो सकता।
निर्जरा मिथ्यात्वी के भी हो जाए पर संवर मिथ्यात्वी के नहीं। परंपरागत मान्यता के अनुसार निर्जरा तो चौथे गुणस्थान तक भी होती है, संवर चौथे में नहीं उससे आगे परंपरागत स्थान माना गया है। केवल निर्जरा को पकड़ लें और संवर न आए तो मोक्ष होगा ही नहीं। संवर जिसने पकड़ लिया, निर्जरा को नहीं भी पकड़ा तो भी उसका मोक्ष तो होना ही होना है। कर्मों का कालमान संपन्न होते ही उनको जाना ही पड़ेगा।
गाय है तो बछड़ा आ जाएगा। संवर रूपी गाय के पास निर्जरा रूपी बछड़ा अपने आप आ जाएगा। साधु के सर्वविरति संवर है, तो साधु का चलना, बोलना, खाना हर कार्य में निर्जरा होती रहेगी। संवर पर ध्यान दो। संवर मेरा समर्थ, सक्षम बने। निर्जरा खराब नहीं है, पर दोनों में तुलना करे तो मैं संवर को ज्यादा महत्त्व दे रहा हूँ।
निर्जरा का भी प्रयास करो, अच्छा लाभ ही लाभ है। निर्जरा की भावना से कार्य करना। निर्जरा के सिवाय और कोई लक्ष्य से तपस्या मत करो। स्वर्ग पाने के लिए निर्जरा नहीं। निर्जरा और पुण्य का भी संबंध है। शुभ योग से निर्जरा भी होती है और पुण्य का बंध भी होता है।
शुभ योग से दो कार्य होते हैं। इसलिए शुभ योग आश्रव भी है और निर्जरा भी है। आश्रव के साथ पुण्य का बंध है। निर्जरा के साथ कर्म झड़ने की बात है। शुभ योग कारण है, इससे दो कार्य हो रहे हैं। पहले पुण्य का बंध फिर निर्जरा।
निर्जरा और बंध एक साथ शुरू होते हैं, फिर पहले-पीछे क्यों? संपन्नता पुण्य बंध की पहले हो जाती है, निर्जरा की बाद में होती है। निर्जरा से कर्म उदय में आएगा, खींचा जाएगा, फिर झड़ेगा इसलिए उसमें समय लगता है। पुण्य तो तत्काल बंध जाएगा। ऐसा गुरुदेव तुलसी से सुना था। संपन्नता में पूर्व-पश्चात का फर्क हो जाता है।
हमारे श्रोताओं में कोई उपासक श्रेणी के सदस्य, तत्त्वज्ञानी हो सकते हैं। वे मेरी इन बातों को कुछ आसानी से ग्रहण कर पाएँगे। शुभ योग के दो भेद हो गएशुभ योग निर्जरा और शुभ योग आश्रव। तप शुभ योग है। साधु की हर प्रवृत्ति तप है।
परंतु तप-तप में तारतम्य हो सकता है। कौन सा तप शक्शिाली, कौन सा कम शक्तिशाली? साधु की प्रवृत्ति तप है, पर साधु तपस्या करता है, उससे व्रत पुष्ट होता है। तपस्या निर्जरा का हेतु है। तपस्या और निर्जरा में फर्क है। निर्जरा कार्य है, तपस्या कारण है। कर्म झड़ना कार्य हुआ, क्यों झड़े, वो तपस्या से झड़े।
तपस्या और निर्जरा के 12-12 भेद हैं। मूल भेद तो तपस्या के ही हैं, पर कारण-कार्य में एक्य कर लें, अभेद स्थापित कर लें। एक-दूसरे से संबंध है। सम्यक् दृष्टि है, उसके भी अकाम निर्जरा हो सकती है। सकाम तो होती ही है। मिथ्यात्वी के भी सकाम-अकाम निर्जरा हो सकती है।
मोक्ष की कामना से युक्त निर्जरा की जाए वो सकाम निर्जरा है। मोक्ष के लक्ष्य बिना ऐसे ही कुछ करना पड़ा वो अकाम निर्जरा हो जाती है। तपस्या मोक्ष पाने के लिए हो न कि भौतिक ठाट-बाट या स्वर्ग के लिए हो। निदान करना तो एक तरह से तपस्या को बेचना हो जाता है। शील, व्रत, तपस्या ये साधना जिनका फल बहुत बड़ा है, मोक्ष तक दिला सकते हैं। इनको नष्ट करके जो सुख पाता है, इच्छा करता है, कौन? जो धृति से दुर्बल है, वह करोड़ रुपये देकर एक कांकणी को खरीदता है।
तपस्या करके निदान कर लिया तो उसकी कितनी बड़ी हानि हो जाती है। साधुपन जैसी संपदा को पाकर खो देने वाला अभागा आदमी है। तपस्या का फल तो आत्म-कल्याण का है। ये तपस्या-साधना बहुत अमूल्य धरोहर है। उसकी सुरक्षा करनी चाहिए। निष्काम भाव से निर्जरा हो।
भगवान महावीर ने 27 भवों में 25वें भव में तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया था। कितनी तपस्या की थी। आश्चर्यकारी तपस्या मान सकते हैं। 11 लाख से ज्यादा तो मासखमण किए थे। अपने आप लाभ हो गया अलग बात है, पर पुण्य की इच्छा से तप को स्थापित कर देना वो अकरणीय-अवांछनीय बात है।
तपस्या से निदान न करके, मोक्ष प्राप्ति की भावना रहे। तो यह श्रेयस्कर बात हो सकती है।
नायागाँव आए हैं। मेवाड़ पास में है, मालवा का लगभग अंतिम किनारा मान लें। यहाँ पर भी लोगों में धर्म की भावना बनी रहे, कल्याण के पथ पर आगे बढ़ें, मंगलकामना।
पूज्यप्रवर के स्वागत-अभिवंदना में अनिल चौधरी, विनीत चौधरी, पूजा चौधरी, महिला मंडल, करणी, कुक्षी, रक्षिता चौधरी, शांतिलाल चौधरी, पारसमल लसोड़, दिलीप लसोड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की।
एक कृति ‘सफर समता का’ जिसे धर्मचंद लुंकड़, मूलचंद नाहर आदि ने लोकार्पण हेतु पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में अर्पित की। यह पुस्तक शासनश्री साध्वी शुभवती जी का जीवन-वृत्त है, जिसे साध्वी संपूर्णयशा जी ने लिखा है।
इस प्रसंग पर पूज्यप्रवर ने फरमाया कि यह पुस्तक साध्वी शुभवती जी का जीवन-वृत्त है। इनके जीवन-वृत्त से पाठक को अच्छी प्रेरणा मिले। चारित्रात्माओं का जीवन जिनमें कुछ विशेषताएँ हो, उनके जीवन से अच्छी प्रेरण मिल सकती है।
चित्तौड़गढ़ के एमएलए चंद्रभान आख्यान ने पूज्यप्रवर के दर्शन किए। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि हम धैर्यता का पाठ गुरुदेव से सीखें।