आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

भाव-परिवर्तन का अभियान

(पिछला शेष) दीपक को किसी ढक्‍कन से ढक दिया जाए तो उसके प्रकाश की एक भी किरण बाहर नहीं जा सकती। उसी को यदि जालीदार ढक्‍कन से ढका जाता है तो प्रकाश छन-छनकर बाहर आ जाता है और ढक्‍कन को सर्वथा हटा दिया जाए तो पूरा प्रकाश फैल जाता है। इसी प्रकार आवृत ज्ञानचेतना प्रकाश के मध्य अवरोध बन जाती है। क्योंकि आवरण सघन है। जालीदार ढक्‍कन से प्रकाश कण बाहर आते हैं। चैतन्य-केंद्र जालीदार ढक्‍कन के समान हैं। इनसे छन-छनकर ज्ञान-रश्मियाँ बाहर फैलती हैं। यह एक प्रकार का अतीन्द्रिय ज्ञान है। ढक्‍कन को हटाने का मतलब है समूचे शरीर को स्फटिक की भाँति निर्मल बना लेना। इस स्थिति में आवरण का सर्वथा विलय हो जाता है, पूरे शरीर से ज्ञान-रश्मियाँ बाहर फैल जाती हैं। पर इसके लिए दीर्घकालिक अभ्यास और सघन श्रद्धा की अपेक्षा रहती है। जब तक पूरा शरीर करण नहीं बनता है, तब तक सर्वावधि अवधिज्ञान या केवलज्ञान उपलब्ध नहीं हो सकता।
प्राचीन काल में चैतन्य-केंद्रों की कोई पहचान नहीं थी, यह बात नहीं है। शरीर-शास्त्रियों ने शरीर में जो विशेष ग्रंथियाँ मानी हैं, वे चैतन्य-केंद्र ही हैं। तंत्र-शास्त्र और हठयोग में जिनको चक्र कहा जाता है, वे चैतन्य-केंद्र ही हैं। आज भी भाषा में शरीर में जहाँ-जहाँ विद्युत चुंबकीय क्षेत्र (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड) हैं, वहाँ-वहाँ चैतन्य-केंद्र हैं। आधुनिक परिवेश में इनकी इस रूप में प्रस्तुति ध्यान की प्रक्रिया को सहज और सरल बनाने में निमित्त बनेगी, ऐसी मेरी मान्यता है। सामान्यत: चैतन्य-केंद्र दो अवस्था में रहते हैंनिष्क्रिय या सुप्त और सक्रिय या जाग्रत। किसी मनुष्य का कोई चैतन्य-केंद्र सहज रूप में सक्रिय हो जाता है, किंतु सबके सभी केंद्र सक्रिय नहीं रहते। अभ्यास के द्वारा एक या अनेक केंद्रों को सक्रिय या जाग्रत किया जा सकता है। चैतन्य केंद्र इस नश्‍वर शरीर में एक प्रकार के गुप्त खजाने हैं। प्रेक्षाध्यान का अभियान इनको जाग्रत करने के लिए है। श्‍वास-प्रेक्षा, शरीर-प्रेक्षा, अंतर्यात्रा, कायोत्सर्गये सभी उसी अभियान के अंग हैं, चैतन्य-केंद्रों का नियंत्रण हुए बिना हमारे भावों का नियंत्रण नहीं हो सकता है। जब तक चैतन्य-केंद्र नहीं बदलते हैं, तब तक भाव-परिवर्तन की भी कोई संभावना नहीं है। भाव, स्वभाव या आदत बदले बिना व्यक्‍तित्व में बदलाव नहीं आ सकता, आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। ऊर्ध्वारोहण भी नहीं हो सकता। इस द‍ृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। जिस साधक ने घनीभूत अवस्था के साथ यह प्रयोग किया है, वह अपने लक्ष्य में सफल हुआ है।

चैतन्य-केंद्रों का प्रभाव

ज्ञान केन्द्र मस्तिष्क में, सहस्त्रार अभिधान।
ज्ञानमयी जो चेतना, उसकी है पहचान॥
शांति केन्द्र सुख-उत्स है, उसका तालु स्थान।
शांति-गवेषक नर करे, समुचित अनुसंधान॥
ज्योति केन्द्र पर ध्यान से आत्मिक अभ्युत्थान।
ज्योतित कण-कण को करे, यह सुन्दर अनुपान॥
दर्शन-केन्द्र प्रसिद्ध है, हितकर आज्ञाचक्र।
भृकुटि-मध्य प्रेक्षा सफल, जो मन रहे अवक्र॥

प्रश्‍न : शरीर प्रेक्षा के अंतर्गत आपने चैतन्य केन्द्रों की चर्चा की है और यह भी बताया कि चैतन्य-केन्द्र क्या हैं? ये केन्द्र कौन-कौन से हैं? कहां हैं? तथा इनकी सुषुप्ति और जागृति से मानव पर क्या प्रभाव होता है?
उत्तर : मानव शरीर में अनेक चैतन्य-केन्द्र हैं। सारे केन्द्र ज्ञात नहीं हो पाए हैं और यह संभव भी नहीं है, क्योंकि यह पहले बताया जा चुका है कि समूचे शरीर को करण बना लेने पर शरीर का कण-कण चेतना का विशिष्ट केंद्र बन सकता है। फिर भी कुछ केंद्रों की अलग से पहचान बनाई जा सकती है। प्रेक्षा-ध्यान के अभ्यास में अब तक मुख्य रूप से तेरह केंद्रों पर ध्यान करवाया जा रहा है। उनके नाम, स्थान और परिणाम के संबंध में किसी प्रकार की अस्पष्टता नहीं है। अब क्रमश: एक-एक केंद्र के बारे में जानकारी दी जा रही है।
मनुष्य के शरीर में दो महत्त्वपूर्ण संस्थान हैं- नाड़ी संस्थान और ग्रंथि-संस्थान। नाड़ी-संस्थान का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है-मस्तिष्क। हमारा सारा ज्ञान और क्रिया उसी से नियंत्रित होती है। ज्ञानतंतु और कर्मतंतु दोनों उसी से जुड़े हुए हैं। शरीर का पूरा साम्राज्य मस्तिष्क के इंगित चलता है। मस्तिष्क का मध्य भाग या चोटी का भाग साधना की द‍ृष्टि से असाधारण स्थान है। इस स्थान में अतींद्रिय चेतना का केन्द्र है। यही है हमारा ज्ञानकेन्द्र। हठयोग की भाषा में इसे सहस्त्रार-चक्र कहा गया है। हमारे मस्तिश्क के दोनों भाग-बायां भाग और दायां भाग चेतना से संबद्ध है। शरीर शास्त्री बतलाते हैं कि मस्तिष्क का बायां भाग भाषा, गणित, तर्क आदि के लिए प्रयोग में आता है और दायां भाग प्रज्ञा के लिए उत्तरदायी है। ज्ञान केन्द्र का संबंध उस दाएं भाग से ही अधिक है।
ज्ञान-केन्द्र के विकास से अंत:प्रज्ञा जाग्रत होती है। अंत:प्रज्ञा के जागरण का संबंध ललाट से भी है। पीयूष ग्रंथि उसका मुख्य केन्द्र है। किंतु ऐसा लगता है कि उसका उत्तरवर्ती विकास ज्ञान-केंद्र के माध्यम से ही हो सकता है। इस द‍ृष्टि से ज्ञान-केंद्र का ध्यान बहुत महत्त्वपूर्ण है। मानसिक ज्ञान का संपूर्ण विकास इसी केंद्र की सक्रियता में होता है। ज्ञान-केंद्र सुप्त या निष्क्रिय रहता है तो व्यक्‍ति तीव्र प्रयत्न करने के बावजूद भी अपनी अंत:प्रज्ञा को विकसित नहीं कर सकता। केंद्र-जागरण की दिशा में उठा हुआ एक-एक पग भी व्यक्‍ति को अपनी मंजिल तक पहुंचा सकता है। इस केंद्र की सर्वांगीण सक्रियता में केवलज्ञान की उपलब्धि को भी नकारा नहीं जा सकता।
(क्रमश:)