उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य सिद्धसेन

जीवन के संध्यकाल में आचार्य सिद्धसेन प्रतिष्ठानपुर (पृथ्वीपुर) पहुँचे। आयुष्यबल को क्षीण जानकर आचार्य सिद्धसेन ने अपने योग्य शिष्य को पद पर नियुक्‍त किया और स्वयं ने अनशन ग्रहण किया। परम समाधि में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का स्वर्गवास हुआ।
एक समर्थ कवि, मधुर वक्‍ता, महान् धर्मोपदेशक, चिंतनशील, गंभीर विचारक, जैनशासन के अतिशय प्रभावी आचार्य के चले जाने से लोगों के हृदय में आघात लगा। संयोग से एक वैतालिक चारण कवि विशाला गया; वहाँ आचार्य सिद्धसेन की भगिनी साध्वी सिद्धश्री से मिला। उस समय चारण को आचार्य सिद्धसेन की याद आ गई। वह उदास मन से श्‍लोक का अर्धांश बोला
‘स्फुरंति वादिखद्योता: सांप्रतं दक्षिणापथे’
इस समय दक्षिण में वादी रूपी जुगनूँ चमक रहे हैं। साध्वी सिद्धश्री आचार्य सिद्धसेन की भाँति अपार बुद्धि-वैभव की धनी थी। वैतालिक चारण की कविता सुनकर वह समझ गईअब विद्वान् बंधु आचार्य सिद्धसेन संसार में नहीं रहे हैं। उसने वाग्मी चारण द्वारा उच्चारित श्‍लोक का उत्तरांश पूर्ण करते हुए कहा
नूनमस्तंगतोवादी, सिद्धसेनो दिवाकर : आचार्य सिद्धसेन दिवाकर निश्‍चय ही अस्त हो गए हैं। साध्वी सिद्धश्री में भाई के स्वर्गवास से विशेष वैराग्य भाव उदय हुआ। नश्‍वरधर्मा इस शरीर की अंतपरिणति समझकर उसने अनशन ग्रहण कर लिया। गीतार्थ श्रुतधर मुनियों के निर्देशन में अपने चारित्ररत्न की सम्यग् आराधना करती हुई वह भी सद्गति को प्राप्त हुई।
आचार्य सिद्धसेन ने अपने व्यक्‍तित्व के प्रभाव से अनेक राजाओं को बोध दिया था। सात राजाओं को अथवा अठारह राजाओं को आचार्य सिद्धसेन द्वारा बोध देने की बात अधिक विश्रुत है।
आचार्य सिद्धसेन का युग आरोह और अवरोह का युग था। संस्कृत भाषा का उत्कर्ष एवं प्राकृत भाषा का अपकर्ष हो रहा था। पुस्तकों के केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति आरंभ हो चुकी थी। श्रमण जीवन में शिथिलाचार प्रवेश पा रहा था। राजसम्मान प्राप्त जैनाचार्यों की द‍ृष्टि में व्यक्‍तित्व प्रभावना का लक्ष्य प्रमुख एवं साधुचर्या की बात गौण बन गई थी। श्रमणों द्वारा गजशिविका आदि विशेष वाहनों का उपयोग भी उस युग में होने लगा था।
आचार्य सिद्धसेन का जीवन-प्रसंग इन सारे बिंदुओं का संकेतक है।
पंडित बेचरदासजी ने सिद्धसेन दिवाकर को विक्रम की पाँचवीं शताब्दी का आचार्य माना है। पंडित दलसुख मालवणिया ने इस स्थिति को निर्बाध बताकर समर्थन किया है।
आचार्य सिद्धसेन न्यायप्रतिष्ठापक, कुशल वाग्मी एवं साहित्याकाश के दिवाकर थे। उनकी नव-नवोन्मेषप्रदायिनी मनीषा जैनशासन के लिए वरदान सिद्ध हुई।
अनेकांत के उद्गाता की, प्रथम पंक्‍ति में पहला नाम।
सम्मति-कर्ता सन्मतिदाता, ‘सिद्धसेन’ अभिधान ललाम॥
(व्यवहार बोध-83)

आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय)

ये भद्रबाहु श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु से भिन्‍न हैं। इनकी प्रसिद्धि ज्योतिर्विद् तथा निर्युक्‍तिकार के रूप में अधिक है। इन्होंने आगम-साहित्य पर दस निर्युक्‍तियाँ बनाई थीं। ये प्रतिष्ठानपुर में रहने वाले एक ब्राह्मण के पुत्र थे। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर उनका छोटा भाई था। दोनों ही निर्धन और निराश्रित थे। दोनों ने ही साथ में दीक्षा ली। सद्गुणों के कारण भद्रबाहु आचार्य बना दिए गए। यह वराहमिहिर से सहन नहीं हो सका। वह साधु-वेश छोड़कर प्रतिष्ठानपुर के महाराज जितशत्रु का कृपापात्र पुरोहित बन गया। अपने आपको ज्योतिष-शास्त्र का अधिकारी बताने लगा। परंतु कुछ भविष्यवाणियाँ असफल रहने से अपवाद भी अधिक फैला।
अपने नवजात पुत्र के संबंध में शतायु होने की उसकी घोषणा असिद्ध हुई।
(क्रमश:)