साँसों का इकतारा
(59)
देख मधुर मुस्कान तुम्हारी सबके दिल खिल जाते।
हो जाते हैं तृप्त कान जब मीठी तान सुनाते॥
जिस पथ से दुनिया चलती वह पथ तुमको न सुहाया
तूफानी लहरों का तुमने जब तब साथ निभाया
गति को जीवन मान चल पड़े वीरानी राहों में
उलझे नहीं कभी भी तुम मन की कल्पित चाहों में
घोर तिमिर को चीर सत्य का हाथ पकड़ ले आते॥
धूमिल चौराहे पर युग का रुका हुआ जीवन-रथ
सांझ सुरमई गहराई सहसा छूटा पीछे पथ
नभ का नखत गिरा ऊपर से नहीं धरा ने झेला
बहता निकट तुम्हारे सदा रोशनी का इक रेला
उखड़े-उखड़े हर मानव को देव! तुम्हीं सहलाते॥
मथ डाला हाथों-पाँवों से सागर को तट पाने
मन की प्यास बुझाने जग के कितने पनघट छाने
प्यास और मझधारा ने जब हरदम साथ निभाया
तब तुमने पाषाणों को भी पानी पर तैराया
मंथन कर समंदर का सबको इमरत आज पिलाते॥
(60)
तुम कहो तो पंथ को मंजिल बना लूँ।
प्यास अपनी आग से भी मैं बुझा लूँ॥
विपुल रेला है प्रलोभन का यहाँ पर
तुम कहो तो मैं इसी का वरण कर लूँ
पीठ के पीछे खड़ी हैं आपदाएँ
तुम कहो तो मैं उन्हीं का स्मरण कर लूँ
शिशिर को मधुमास का वैभव लुटाकर
तुम कहो तो मौन में भी गुनगुना लूँ॥
ज्योति का झरना निमंत्रण दे रहा है
तुम कहो तो जा वहाँ विश्राम कर लूँ
तिमिर का आह्वान भी मैंने सुना है
तुम कहो तो जा वहीं कुछ काम कर लूँ
धरा की रौनक लुभाती ही रही है
तुम कहो तो व्योम में जा घर बसा लूँ॥
उतर आया गीत कानों में विजय का
तुम कहो तो मैं इसी को प्यार कर लूँ
सुन रही आहट पराजय की निरंतर
तुम कहो तो मैं उसे गलहार कर लूँ
है नहीं मझधार में भी कष्ट मुझको
तुम कहो तो मैं यही तट को बुला लूँ॥
(क्रमश:)