संबोधि
ु आचार्य महाप्रज्ञ ु
बंध-मोक्षवाद
भगवान् प्राह
(17) निवृत्ति: पूर्णतामेति, शैलेशी×च दशां श्रित:।
अप्रकम्पस्तदा योगी, मुक्तो भवति पुद्गलै:॥
जब निवृत्ति पूर्णता को प्राप्त होती है तब योगी शैलेशी दशा को प्राप्त होकर अप्रकंप बनता है और पुद्गलों से मुक्त हो जाता है।
पूर्ण-निवृत्त स्थिति में पुद्गलों का ग्रहण सर्वथा निरुद्ध हो जाता है। पूर्वबद्ध कर्मों के निर्जरण से आत्मा अपने मौलिक स्वरूप में अवस्थित हो जाती है। अब उसके पास संसार में रहने का कोई कारण नहीं है। इसलिए वह निर्वाण को प्राप्त हो जाती है। जो प्राणी प्रवृत्ति में संलग्न होते हैं उनके लिए शुभाशुभ प्रवृत्तियों का क्रम अविच्छिन्न चलता रहता है। दोनों के मूलोच्छेद के बिना आवागमन का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता। कर्म के क्षीण होने की प्रक्रिया हैसबसे पहले अविरति और दुष्प्रवृत्ति से व्यक्ति मुक्त बने। बुद्ध की साधना-पद्धति में शील को प्रथम स्थान दिया है। योग में यम और नियम की प्रमुखता है। महावीर महाव्रत और अणुव्रत की बात कहते हैं। सबका सार-सूत्र इतना ही है कि इनके द्वारा असत् प्रवृत्ति के प्रवाह को सबसे पहले अवरुद्ध किया जाए। अशुभ से क्रिया का मुँह मोड़कर उसे शुभ कर्म-प्रवृत्ति से जोड़ा जाए। शुभ प्रवृत्ति का कार्य होगाशुभ पुद्गलों का अर्जन और बद्ध अशुभ कर्मों का निर्जरण। जैसे कुछ औषधियाँ स्वास्थ्य लाभ करती हैं और बल-संवर्द्धन भी। ठीक इसी तरह शुभ प्रवृत्ति का कार्य है। शुभ प्रवृत्ति जब फलाकांक्षा और वासना से शून्य होती है तब क्रमश: उससे निवृत्ति का पथ प्रशस्त होता है। अंततोगत्वा पूर्ण निवृत्ति की स्थिति साधक के जीवन में घटित होती है।
(18) सम्यक्त्वं विरतिस्तद्वद्, अप्रमादोऽकषायक:।
अयोग: पंचरूपेयं, निवृत्ति: कथिता मया॥
सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोगमैंने इस पाँच प्रकार की निवृत्ति का निरूपण किया है।
(क्रमश:)