उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य मानतुङ्ग
दिगम्बर परम्परा के अनुसार महाकवि आचार्य मानतुङ्ग श्वेताम्बर थे। एक दिगम्बराचार्य द्वारा व्याधि-मुक्त होने पर उन्होंने दिगम्बर-मार्ग का अनुसरण किया और प्रश्न पूछा‘भगवन्! किं क्रियताम्’मैं क्या करूं? गुरु ने आज्ञा दी‘परमात्मनों गुणगणस्तोत्रं विधीयताम्’ परमात्मा के गुणों के स्तोत्र की रचना करो। आचार्य का आदेश प्राप्त कर मुनि मानतुङ्ग ने भक्तामर का निर्माण किया।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आचार्य मानतुङ्ग ने पहले दिगम्बर और बाद में श्वेताम्बर दीक्षा ग्रहण की। दिगंबर परम्परा के अनुसार वे पहले श्वेताम्बर, बाद में दिगम्बर बने। एक ही व्यक्ति के जीवन प्रसंग को लेकर दोनों परम्पराओं में विसङ्गति और विपर्यय कैसे हुआ इसके पीछे किसी न किसी प्रकार की मनोभावना की भूमिका अवश्य रही है। लगता है, भक्तामर स्तोत्र से संबंधित इस चामत्कारिक घटना के कारण आचार्य मानतुङ्ग का व्यक्तित्व इतना युगप्रभावी हो गया था जिससे इस स्तोत्र-रचना के प्रसङ्ग के साथ दोनों संप्रदायों ने उन्हें अपना मानने का प्रयत्न किया है। जिन शासन में मानतुङ्ग धर्म के महान् उद्योतक आचार्य हुए। उन्होंने अपने शिष्यों को अनेक प्रकार से बोध देकर योग्य बनाया।ं गुणाकर नामक शिष्य को अपने पद पर स्थापित कर वे इंगिनी अनशन के साथ स्वर्ग को प्राप्त हुए। प्रभावक चरित्र में आचार्य मानतुङ्ग को काशी-नरेश हर्षदेव के समकालीन माना गया है। डा ए बी कोथ के अभिमत में आचार्य मानतुङ्ग की कोठरियों के ताले या पाशबद्धता संसार बन्धन का रूपक है। इस प्रकार के रूपकों का निर्माण समय छठी-सातवीं शताब्दी है। इस आधार पर स्वर्गीय डॉक्टर नेमिचंद्र शास्त्री ने भक्तामर स्तोत्र के रचनाकार का समय विक्रम की छठी सदी का उत्तरार्द्ध्र या सातवीं सदी का पूर्वार्द्ध अनुमानित किया है। आचार्य मानतुङ्ग के चामत्कारिक घटना-प्रसंग का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में मयूर और बाण से अवश्य जुड़ा है। ये दोनों विद्वान् हर्ष की सभा में सम्मान-प्राप्त थे। इससे आचार्य मानतुङ्ग की समसामयिकता भी नरेश हर्षवर्द्धन के साथ प्रमाणित होती है। हर्ष का राज्याभिषेक समय ईस्वी सन् 608 बताया गया है। हर्ष के समकालीन होने के कारण मानतुङ्गचार्य का समय वी0नि0 की 12वीं (वि0 7 वीं) शताब्दी सम्भव है।
आचार्य अकलंक
भट्ट अकलंक दिगंबर परंपरा के कुशल वाग्मी, श्रेष्ठ कवि, शास्त्रार्थ-प्रवीण, गंभीर दार्शनिक आचार्य थे। जैन-न्याय के वे प्राण-प्रतिष्ठापक थे। शास्त्रविज्ञ आचार्यों में भी आचार्य भट्ट अकलंक अग्रणी थे। भट्ट अकलंक का जन्म कांची निवासी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जिनदास था। माता का नाम जिनमती था। प्रभाचंद्र के कथाकोष एवं नेमिदत्त-कृत आराधना कथाकोष के अनुसार भट्ट अकलंक के पिता का नाम पुरुषोत्तम एवं माता का नाम पद्मावती था। पुरुषोत्तम मान्यखेट नरेश शुभतुंग के राज्य में मंत्री पद पर थे। भट्ट अकलंक के लघुभ्राता का नाम निष्कलंक था। अकलंक और निष्कलंक युगल भ्राता असाधारण बुद्धि के स्वामी थे। अकलंक एक संधि और निष्कलंक द्विसन्धि (संस्थ) थे। किसी भी पद्य अथवा सूत्र-पाठ को अकलंक एक बार सुनकर और निष्कलंक दो बार सुनकर याद रख लेने में समर्थ थे। एक बार दोनों भ्राता माता-पिता के साथ जैन गुरु रविगुप्त के पास अष्टाह्निक पर्व के अवसर पर गए। उनके उपदेश से भावित होकर माता-पिता एवं बंधु-युगल ने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया। दोनों के वयस्क होने पर उनके माता-पिता के उनको वैवाहिक सूत्र में बाँधना चाहा पर वे दोनों बालवय में ग्रहण की हुई ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा में दृढ़ थे। उन्होंने शादी का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। माता-पिता ने समझायापुत्रो! वह व्रत तुम्हारे आठ दिन के लिए ही था। अत: उस प्रतिज्ञा से अब तुम मुक्त हो। इस समय विवाह करने से उस समय की गृहीत प्रतिज्ञा में किसी भी प्रकार के दोष की संभावना नहीं है। पिता की बातों को दोनों पुत्रों ने सुना, पर उनके विचारों में परिवर्तन नहीं हुआ। वे विनम्र होकर बोलेपूज्य पितृवर्य! व्रत ग्रहण किया उस समय काल की कोई चर्चा नहीं थी अत: हम जीवन-भर के लिए इस व्रत को निभाएँगे। माता-पिता का प्रयत्न असफल रहा। वे दोनों में से एक पुत्र को भी वैवाहिक सूत्र में न बाँध सके।
(क्रमश:)