साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(65)

प्रगति का हर पाठ मैं तुमसे पढूॐगी।
जिंदगी के उच्च शिखरों पर चढ़ूँगी॥

नयन-युग का वह अमित वात्सल्य पाकर
एक सम्मोहन लिए जब झाँकती हूँ
बंद पलकों में मधुर मुस्कान भर कर
बाँटते पुलकन जगत को आँकती हूँ
विजन दो इतिहास अभिनव मैं गढ़ूँगी॥

सोचती रहती निरंतर स्वप्न में भी
हो न पाया आज तक वह काम कर दूँ
लचकते कोमल करों में तूलिका ले
रूप-छाया में मनोहर भाव भर दूँ
विशद उस तसवीर को कैसे मढ़ूँगी॥

भीत हो सिमटी रही अब तक स्वयं जो
चाँदनी वह आज उतरी है धरा पर
निकलती हँसती अमित आभामयी हो
विपुल तम का नाश करने बनी तत्पर
पंथ की पहचान कर आगे बढ़ूँगी॥

(66)

दुष्काल पड़ा जब मूल्यों का
पहुँची मानवता की गुहार।
तुलसी तुम धरती पर आए
लाए पतझर में नव बहार॥

जीने की कला नहीं जानी
जन-मानस भ्रम में घुले हुए
अनजानी मंजिल कदम शिथिल
बीहड़ दुर्गम पथ खुले हुए
खोया-खोया-सा मुग्ध मनुज
पलकें पसार था देख रहा
सूने चौराहे पर पहुँचा
रीता धीरज भी हरा-सहा
तब उतर गए हे ज्योतिकिरण!
तारों से रजनी को निखार॥

गहराई प्यास मनुज-मन की
बढ़ रही भीड़ जब पनघट पर
कुछ लोग खड़े थे हो निराश
सूखी सरिताओं के तट पर
तब तुमने अंतर्द‍ृष्टि खोल
युग की पीड़ा को देख लिया।

दे आश्‍वासन वात्सल्यभरा
सबविध सबको निश्‍चिंत किया
हो गया द्रवित दिल मक्खन-सा
सुनकर अंतर्मन की पुकार॥

भीतर की दाह अथाह विवश
प्राणों का पंछी अकुलाया
मिल गई अचानक ममता की
बेहद सुखकर शीतल छाया
जब महातिमिर उतरा भू पर
आँखें मानव की पथराई
तब नव प्रकाश की रेखाएँ
तुमसे ही दुनिया ने पाई
तुमने ही पोंछी है जब-तब
भावुक नयनों की अश्रुधार॥
(क्रमश:)