उपासना

स्वाध्याय

उपासना

आचार्य अकलंक

नेमिदत्त के आराधना कथाकोष के अनुसार कलिगं देश के रत्नसंचयपुर में भट्ट अकलंक का बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ नरेश हिमशीतल की सभा में हुआ था। इस शास्त्रार्थ का पूर्व घटना-प्रसंग इस प्रकार हैनरेश हिमशीतल की रानी मदनसुंदरी जैन धर्म में आस्था रखती थी। वह अष्टाह्निक पर्व के अवसर पर एक दिन बड़ी धूमधाम के साथ जैन रथयात्रा निकालना चाहती थी। उस समय वहाँ पर बौद्ध गुरुओं का अधिक प्रभाव था। उन्होंने नरेश हिमशीतल को एक शर्त के साथ अपने विचारों से सहमत कर लिया कि किसी जैन गुरु के द्वारा बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने पर भी यह रथयात्रा निकल सकती है। रानी राजा के इन विचारों से चिंतित हुई। संयोग से यह बात भट्ट अकलंक के पास पहुँची। वे शास्त्रार्थ करने के लिए वहाँ आए। नरेश हिमशीतल की सभा में उनका बौद्धों के साथ छह महीनों तक शास्त्रार्थ चला। जैनशासन की उपासिका चक्रेश्‍वरी देवी ने एक दिन भट्ट अकलंक से कहापरदे के पीछे कोई और बौद्ध गुरु नहीं अपितु घट में स्थापित तारादेवी शास्त्रार्थ कर रही है। अत: उसके द्वारा कहे गए वाक्यों को पुन: पूछने पर तारादेवी की पराजय और तुम्हारी विजय है। दूसरे दिन भट्ट अकलंक ने वैसा ही किया। तारादेवी अपने द्वारा कहे गए वाक्यों को अकलंक द्वारा पुन: पूछने पर न दोहरा सकी। अकलंक ने तत्काल परदे को खींचकर घड़े को ठोकर से तोड़ डाला। घट का स्फोट होते ही सारा रहस्य उद्घाटित हो गया। बौद्धों की भारी पराजय और अकलंक की विजय हुई। जैन रथयात्रा धूमधाम से संपन्‍न हुई एवं जैनशासन की महत्ती प्रभावना हुई।

समय-संकेतआचार्य अकलंक वी0नि0 की 14वीं (वि0 की 9वीं) शताब्दी के विद्वान् थे।

अजेय वादशक्‍ति, अतुल प्रतिभा-बल एवं मौलिक चिंतन पद्धति से आचार्य अकलंक भट्ट कोविद-कुल के अलंकार थे एवं युग-प्रवर्तक आचार्य थे। उनको जैन न्याय का पिता कहा जाता है।

 

आचार्य हरिभद्र

जैन परंपरा में हरिभद्र नाम के भी कई आचार्य हुए हैं। प्रस्तुत हरिभद्रसूरि सबसे प्राचीन हैं और याकिनीमहत्तरासूनु नाम से प्रसिद्ध हैं। सैकड़ों वर्षों के बाद भी हरिभद्रसूरि का जीवन प्रकाशमान नक्षत्र की तरह चुक रहा है। उनमें जैसे उदार मानस का विकास हुआ वैसे विरलों में हो पाता है। उन्होंने प्रतिपक्षी के लिए महर्षि, महामुनि जैसे सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग किया है। उनका वह उदात्त घोष आज भी सुविश्रुत है

पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष : कपिलादिषु।

युक्‍तिमद्वचनं यस्य, तस्यकार्य: परिग्रह:॥

वीर-वचन में मेरा पक्षपात नहीं। कपिल मुनियों से मेरा द्वेष नहीं। जिनका वचन तर्कयुक्‍त हैवही ग्राह्य है।

आचार्य हरिभद्र की कृतियों में प्राप्त उल्लेखानुसार उनके दीक्षा गुरु विद्याधर-कुल-तिलकायमान जिनदत्त थे।

आचार्य हरिभद्र का जन्म चित्रकूट निवासी ब्राह्मण परिवार में हुआ। चित्रकूट नगर (चित्तौड़) नरेश जितारि के राज्य में उनको राजपुरोहित का स्थान मिला।

राजपुरोहित हरिभद्र को अपने विद्याबल पर अतिशय गर्व था। ‘बहुरत्ना वसुंधरा’ यह वसुंधरा विविध रत्नों को धारण करने वाली है, यह बात उन्हें अवैज्ञानिक लगी। उनकी द‍ृष्टि में कोई भी योग्यता उनकी तुला के फलक को उठाने में समर्थ नहीं थी।

हरिभद्र पंडितों में अग्रणी थे एवं विवाद-विद्या में भी अपने को अजेय मानते थे। शास्त्र-विशारद विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए वे सदा तत्पर रहते थे। पांडित्य के अतिशय अभिमान ने उन्हें असाधारण निर्णय तक पहुँचा दिया था। ज्ञानभार से कहीं उदर फट न जाए, इस भय से वे पेट पर स्वर्णपट्ट बाँधे रहते थे। अपने प्रतिद्वंद्वी की धरती का उत्खनन कर निकाल लेने के लिए कुदाल, जल से खींच लेने के लिए जाल और आकाश से धरती पर उतार लेने के लिए सोपान-पंक्‍ति प्रतिसमय अपने-कंधे पर रखते थे। जम्बूद्वीप में भी उन जैसा कोई विद्वान् नहीं है, इस बात को सूचित करने हेतु वे हाथ में जम्बूवृक्ष की शाखा को रखते थे। उनका दर्पोन्‍नत मानस किसी भी व्यक्‍ति द्वारा उच्चारित वाक्य का अर्थ न समझने पर उसका शिष्यत्व स्वीकार कर लेने को प्रतिबद्ध था। हरिभद्र अपने को इस कलियुग में सर्वज्ञ समझते थे।