आत्मा के आसपास - आचार्य तुलसी

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास - आचार्य तुलसी

प्रश्न: आभा-मंडल जैसा होता है, वैसा ही रहता है या इसे बदला भी जा सकता। हैं? आभा-मंडल को उज्ज्वल बनाने का क्या उपाय है?
उत्तर: आभा-मंडल का सीधा संबंध है भावों की पवित्रता से। जैसे-जैसे भावों की विशुद्धि बढ़ती है, आभामंडल बदलता रहता है। जिस व्यक्ति में क्रोध, घृणा, ईष्या, द्वेष। आदि नकारात्मक भाव जितने कम होते हैं, हिंसा, तोड़-फोड़ आगजनी, लूटपाट आदि ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने वाले भाव जितने कम होते हैं, आभा-मंडल उतना ही अच्छा होता है। जैन दर्शन की भाषा में लेश्या की विशुद्धि आभा-मंडल की विशुद्धि है और व्यवहार की भाषा में विचारधारा की विशुद्धि आभा-मंडल की उज्ज्वलता में निमित्त बनती है। विचारों में शुद्धि की अपेक्षा तरतमता रहती है। यही तरतमता आभा-मंडल में भी घटित होती है।
आभा-मंडल को उज्ज्वल बनाने में ध्यान तो प्रबल निमित्त है ही, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा, प्रवचन, चर्चा और चिंतन भी सक्षम उपाय हैं। संकल्प के साथ अपने चिंतन को प्रशस्त करने वाला व्यक्ति अनायास ही आभा-मंडल को उज्ज्वल बनाने में सफल। हो जाता है।
कलकत्ता से समागत एक भाई सुना रहा था कि उसको ‘महाप्रज्ञ’ से एक चिंतन मिला-‘मुझे अपने चित्त में अच्छे भाव रखने चाहिए।’ उसने इस विचार को पकड़ लिया। वह प्रतिदिन जागरूक रहने लगा। अभ्यास पुष्ट हुआ। बुरे विचार स्वयं समाप्त हो गए। उसके परिजनों और परिचितों में एक प्रतिक्रिया है कि सब व्यक्ति ऐसे हो जाएं तो परिवार में अशांति जन्म ही नहीं ले सकती। वह बराबर सोचता रहता है कि मैं ऐसा चिंतन नहीं करूंगा, जिससे किसी का बुरा हो। मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जिससे किसी को कष्ट हो। यह विचारों की दृढ़ता आभा-मंडल को उज्ज्वल, उज्ज्वलतर बनाने में उपयोगी बनती है।
मलिन आभा-मंडल व्यक्ति को स्वार्थी, अभिमानी, असंयमी, क्रूर और कदाग्रही बनाता है। वह अपने जीवन में ऐसा कोई भी काम नहीं करता, जिससे उसे आध्यात्मिक आरोहण में सहयोग मिले। उसकी चेतना बहिर्मुखी होती है, चिंतन एकांगी होता है, निर्णय में आग्रही मनोवृत्ति का पुट रहता है और वह किसी की आत्मीयता नहीं पा सकता।।


प्रश्न: किस व्यक्ति का आभा-मंडल कैसा है? यह जानने की कोई कसौटी है क्या? साधक साधना करता जाए और उसके परिणामों के संबंध में उसे कोई अवगति ही न हो तो वह उस मार्ग पर कब तक चलेगा?
उत्तर: व्यक्ति साधना करे और उसका कोई परिणाम न आए, यह कभी हो ही नहीं सकता। मनुष्य की अच्छी और बुरी प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। परिणाम स्थूल होते हैं तो स्पष्ट रूप से उनका अवबोध हो जाता है और परिणाम सूक्ष्म होते हैं तो उनका आभास भी नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति अपनी दृष्प्रवृत्ति का परिणाम जानने के लिए उत्सुक क्यों नहीं होता? ऐसे बहुत व्यक्ति हमारे संपर्क में रहते हैं जो साधना की। प्रारंभिक अवस्था में ही उसके परिणाम देखने के लिए आतुर रहते है। किंतु वे कभी यह सोचते भी नहीं कि हमने किसी को धोखा दिया है, किसी को बुरा-भला कहा है, किसी की आजीविका का विच्छेद किया है, क्रोध किया है, षड्îंत्र किया है, और भी न जाने क्या-क्या किया है। इन सबका परिणाम क्या होगा? इन दुष्प्रवृत्तियों का फल भोगते समय हिस्सा बंटाने कौन आएगा?
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि हर प्रवृत्ति का परिणाम निश्चित है। आभामंडल की उज्ज्वलता जब बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर होती है, तब उसका स्पष्ट आभास न भी हो फिर भी यह बात सही है कि जिसका आभा-मंडल पवित्र होता है, उनमें सहज रूप। से बुरे संस्कार संक्रांत नहीं होते। वह व्यक्ति बुराइयों से प्रभावित नहीं होता। उस पर तांत्रिक प्रयोगों का प्रभाव नहीं पड़ता। उसे सात्त्विक आनंद का अनुभव होता रहता है। उसमें अभय भावना विकसित होती है। अभय का मुख्य स्रोत है-सम्यक दर्शन। सम्यक दृष्टि आभावलय को उज्ज्वल बनाती है और उज्ज्वल आभावलय भय की भावना को समाप्त करता है। मानसिक बल उसी व्यक्ति का बढ़ सकता है, जो अभय रहता है। इष्ट की साधना, आध्यात्मिक विकास, आत्मा के प्रति समर्पण, अंतर्मुखता, द्वंद्व-मुक्त चित्त आदि ऐसे अनेक बिंदु है, जो आभा-मंडल की उज्ज्वलता के प्रबल साक्ष्य है। इन सब परिणतियों के आधार पर कोई भी व्यक्ति अपने आभा-मंडल की पहचान कर सकता है।

तेजोलब्धि: उपलब्धि और प्रयोग

जागृत शक्ति निरोध की, सक्रिय पाचन-तंत्र।
पापभीरुता, नम्रता, अचपलता का मंत्र।।
वह लेश्या है तेजमय, अणुओं का समुदाय।
जो वैचारिक परिणति, वह भावात्मक आय।।
शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम द्रव्यों का संयोग।
तेज, ओज बढ़ता विपुल, मिटते दुःसह रोग।।
ध्यान-साधना काल में, लेश्या का विज्ञान।
रंगों के आधार पर, हो पूरी पहचान।।


प्रश्न: आभा-मंडल का प्रभाव केवल मन पर ही होता है या शरीर पर भी? मनोबल की प्रबलता आभा-मंडल को स्वच्छ बनाती है अथवा स्वच्छ आभा-मंडल मानसिक शक्ति का विकास करता है?
उत्तर: मन और शरीर का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। शरीर में कोई बीमारी होती है तो मन अशांत हो जाता है और मन अशांत है तो शरीर क्लांत हो जाता है। इसलिए शरीर और मन पर होने वाले प्रभावों को अलग-अलग बांटा नहीं जा सकता। ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। आभा-मंडल की स्वच्छता से शरीर और मन दोनों साथ-साथ प्रभावित होते हैं। उससे नियंत्रण की शक्ति बढ़ती है। इस शक्ति का भी शरीर और मन दोनों के साथ संबंध है। संकल्प पूर्वक नियंत्रण किया जाता है, पर वह स्थायी नहीं होता। आभा-मंडल या तेजोलेश्या के स्पंदनों से जो नियंत्रण होता है, वह स्वाभाविक होता है।
शरीर पर तैजस-शक्ति का प्रभाव होता है-पाचन-तंत्र की सक्रियता। पाचन-तंत्र ठीक ढंग से काम करता है तो भोजन का रस ठीक बनता है। सही ढंग से रस रूप में परिणत भोजन शरीर को पोषण देता है। शरीर पुष्ट होता है तो मन की दृढ़ता में भी मा मिलता है।
तेजोलेश्या की विशुद्धि से बुरे आचरणों और भावों से बचने की प्रवनि पापभीरुता विकसित होती है। उच्छृंखलता समाप्त हो जाती है। विनम्रता बढ़ती है। संकल्प-शक्ति का विकास होता है। फलतः स्थिरता और एकाग्रता बढ़ती है। चित्त की अस्थिरता से होने वाले द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं और भीड़ में भी अकेलेपन के आनंद का अनुभव होने लगता है। यह सब तैजस-शरीर के जागरण अथवा उजले आभावलय से ही घटित हो सकता है।

(क्रमशः)