जो भीतर में रहता है उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता है: आचार्यश्री महाश्रमण
मेलुसर, 23 अप्रैल, 2022
अहिंसा यात्रा प्रणेता अपनी जन्मभूमि की ओर अग्रसर होते हुए आठ किलोमीटर का विहार कर मेलूसर स्थित मालू परिवार के फार्म हाउस पर पधारे। मुख्य प्रवचन में तेरापंथ के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन आगमों में एक है-उत्तराध्ययन। उसमें युद्ध की बात बताई गई है। युद्ध भी एक ऐसा युद्ध जो स्वयं के साथ किया जाए। अपने साथ लड़ो, अपनी आत्मा से लड़ो। बाहर के युद्ध से क्या मतलब है। क्योंकि आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतकर आत्मा सुख को प्राप्त कर लेती है।
अपने आपको जीतना महत्त्वपूर्ण कार्य है। आर्ष वाणी में कहा गया है कि एक योद्धा समरांगण में दस लाख शत्रुओं को दुर्जय संग्राम में जीत लेता है। दूसरी तरफ एक साधक पुरुष अपनी आत्मा को जीत लेता है। प्रश्न होता है, बड़ा विजेता कौन है। शास्त्रकार ने कहा है जो अपने आपको जीत लेता है, वह उसकी परम विजय होती है।
प्रश्न है, अपने आपको कैसे जीतें? हमारी आत्मा में जो राग-द्वेष रूपी विकृतियाँ हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषाय है, वो एक प्रकार से शत्रु है इनको जीतना है। चारित्रात्मा, सम्यक् आत्मा जीतने वाली है। शस्त्र है-उपशम से क्रोध को जीतो। उपशम की अनुप्रेक्षा करो। शांति के अभ्यास, क्षमा और उपशम के अभ्यास के द्वारा गुस्से को जीतो।
अहंकार रूपी शत्रु को मार्दव से जीतो। माया को समता की साधना से, ऋजुता से जीतो। लोभ को संतोष से जीतो। राग को जीतने के लिए वैराग्य भाव का विकास करो। द्वेष को जीतने के लिए अनिर्ष्या की भावना, समता की भावना की अनुप्रेक्षा करो। इस प्रकार अभ्यास करते-करते अपनी आत्मा के साम्राज्य को पाया जा सकता है। अपनी आत्मा को जीता जा सकता है।
जैन दर्शन में कर्मवाद की बात अच्छे ढंग से प्राप्त होती है। आठ कर्म बताए गए हैं। इन आठ कर्मों में मुख्य हैं-मोहनीय कर्म। मोहनीय कर्म का बड़ा साम्राज्य है, परिवार है। एक मोहनीय कर्म नष्ट हो जाए तो बाद में तो सातों कर्म ही नष्ट हो जाते हैं। मोहनीय कर्म सेना में सेनापति है, प्रमुख है। सेनापति को खत्म कर दिया जाए तो फिर सेना तो भाग ही जाएगी।
गुस्सा, मान आदि मोहनीय कर्म के ही अंग हैं। यह आत्मयुद्ध है, धर्मयुद्ध है। कोई बाह्य युद्ध नहीं है। बाहर के युद्ध में तो हिंसा होती है। आत्म युद्ध शांति को प्राप्त कराने वाला होता है। भारत का मानो भाग्य है कि यहाँ संत-ऋषियों की परंपरा चलती आ रही है। अपने ढंग से संत लोग संचरण-विचरण करते हैं।
संतों की साधना अच्छी चले। संतों से जनता को सन्मति-उपदेश मिलता रहे। भारत में प्राच्य विद्या के ग्रंथ भी कितने हैं। अनेक भाषाओं के ग्रंथ में कितना ज्ञान भरा पड़ा है। भारत में धार्मिक संप्रदाय बहुत है। पंथों से पथदर्शन मिलता रहे।
दूसरों को देखना भी उपयोगी हो सकता है, पर अपने आपको देखें। अपने भीतर जाएँगे तो भीतर के शत्रु अपने आप चले जाएँगे। आत्म युद्ध की दृष्टि से अपने भीतर रहना बहुत अच्छी बात है। यह एक प्रसंग से समझाया कि जो भीतर में रहता है, उसको किसी तरह का भय नहीं रहता है। समय-समय का अंतर रहता है। हम अपने परम प्रभु के साथ रहें। हम अपने क्रोध, मान, माया, लोभ को जीतने का प्रयास करें।
आज मेलुसर आए हैं। मालू परिवार का स्थान है। परिवार में धार्मिक संस्कार अच्छे रहें। पूज्यप्रवर के स्वागत में मालू परिवार द्वारा गीत, विकास मालू, बाबूलाल बोथरा, निशा सेठिया, संगीता बच्छावत, सिद्धार्थ चिंडालिया, राजकुमार रिणवा (विधायक) ग्राम पंचायत शीला शरण, डॉ0 प्रभा पारीख (अणुव्रत समिति), गजानंदी, विद्यालय के बच्चे, बाबूलाल दुगड़ ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।