यादें... शासनमाता की - (9)

यादें... शासनमाता की - (9)

14 मार्च, 2022, प्रातः 7 बजे साध्वीप्रमुखाश्री के पास पधारकर
आचार्यप्रवर: रात को कैसे, ठीक रहा?
साध्वी कल्पलताजी: प्यास लगी।
आचार्यप्रवर: (साध्वीप्रमुखाश्री से) हमेशा लगती है या कल ही लगी?
मुख्य नियोजिकाजी: प्रातः प्रतिक्रमण के बाद मैंने और साध्वीवर्याजी ने पूछा तो फरमाया कि प्यास लगी।
आचार्यप्रवर: अब तो उदक दे दिया ना?
साध्वी सुमतिप्रभा: तहत्
आचार्यप्रवर: दो घंटा जप की आलोयणा दे दें।
साध्वीप्रमुखाश्री: बड़ी कृपा कराई।
आचार्यप्रवर: रात में श्वास कैसे रहा?
साध्वी सुमतिप्रभा: करवट लेने के बाद थोड़ी कठिनाई कम हुई।
आचार्यप्रवर: आप भले पोढ़ा जाएँ जैसे साता रहे वेसे ही।
करीब 7ः05 से 7ः28 तक आचार्यप्रवर का स्वर मौन था, आँखें बार-बार बंद हो रही थीं और हाथ जुड़ रहे थे मानो मन में कोई चिंतन या प्रार्थना चल रही हो। फिर वीरत्थुई का पाठ करवाया।
करीब 10ः14 पर आचार्यप्रवर का पुनरागमन के पश्चात् सेवा-उपासना का क्रम।
साध्वीप्रमुखाश्री: गुरुदेव कितनी मेहनत करवा रहे हैं? कितनी बार पधारते हैं? कितना काम है, अभी प्रवचन दिलाना है।
आचार्यप्रवर: अपने आगम में आता है-

खवेंति अप्पाण ममोहवं सिणो तवे रया संजम अज्जवे गुणे
धुणंति पावाइं पुरेकडाइं नवाइं पावाइंतने करेंति।।

जो अमोहदर्शी होते हैं वे पूर्वकृत कर्मों को खपा देते हैं, तप, संयम, आर्जव में रत रहते हैं, नए पापों को नहीं करते। ये अपना जीवन है और ऐसा जीवन जिन्हें मिलता है वे तो धन्य हो जाते हैं।
सेवा करने वाले भी बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं।
मुख्य नियोजिकाजी: डॉ0 साहब रोज सुबह कहते हैं कि आपके जैसी नर्सें नहीं हो सकतीं।
आचार्यप्रवर: बहुत बढ़िया काम है। ऐसे वरिष्ठ व्यक्तित्व की सेवा करना और भी अच्छा है। यह जीवन की उपलब्धि है।
साध्वी कल्पलता: हम तो क्या कर रहे हैं? संघ से, साध्वीप्रमुखाजी से बहुत-बहुत मिला है।
आचार्यप्रवर: यह लक्ष्य रहे कि सेवा और सूक्ष्मता से करें। कहीं कोई कमी नहीं रह जाए। कोई छोटे-छोटे छिद्र नहीं रह जाएँ। जिस प्रकार दिशाओं में तो विदिशाएँ होती हैं, किंतु सेवा में कोई छेद न रहे, कोई पीछे न रहे।

दोपहर लगभग 3ः30 पर

आचार्यप्रवर: आज श्वास कुछ ठीक है?
साध्वी कल्पलता: तहत्
आचार्यप्रवर: कल से कुछ कम लग रहा है (उठने में)
साध्वी कल्पलता: तहत्, कम लग रहा है।
आचार्यप्रवर: अपने दसवेआलियं में पाठ आता है-तवोगुणवहाणस्स---
आत्मा को सुगति कैसे मिले? सुगति के लिए दो बातें हैं-एक होती है-भौतिक सुगति। जैसे कोई ऊँचे देवलोक में चला जाए। इसके पीछे भी धर्म का ही हाथ माना जा सकता है, क्योंकि धर्म के बिना पुण्य नहीं बंधा। दूसरी है-आध्यात्मिक सुगति। स्वयं को दुर्गति से बचाए रखें। तकलीफ नहीं हो, ऐसी सुगति मिले।
वैसी सुगति के लिए आगमकार ने कई बातें बतलाई जैसे-
तपोगुण की प्रधानता होनी चाहिए। तपोगुण अनेक प्रकार से हो सकता है। नवकारसी भी एक छोटा सा तप है।
साध्वी जिनप्रभाजी: साध्वीप्रमुखाश्री तो नवकारसी ही करवाते।
आचार्यप्रवर: कई वर्षों से नवकारसी करवाते हैं। जिसके नवकारसी की अनुकूलता रहे, चाय नहीं पीनी हो और कुछ नहीं लेना हो तो नवकारसी करनी चाहिए। छोटा सा तप हो जाए। सेवा करना भी तपस्या है। सेवा भी निर्जरा के भेदों में आ जाती है। ग्लान-वृद्ध की सेवा करना भी तप ही है। मैंने सुबह कहा ना कि इतने विशिष्ट व्यक्तित्व की सेवा करना बहुत बढ़िया काम है। अभी तो सेवा का बहुत अच्छा मौका है। जो सेवा करे उनकी ओर से सेवा में कोई कमी नहीं रह जाए। समय पर दवा देना, रात को जगना पड़े तो नींद भी गौण करनी, श्रम करना हो तो श्रम भी करना सेवा है।
ऋजुता भी सुगति का कारण है। छल-कपट मन में नहीं रहना चाहिए। परीषहों को जीतने की अंतिम बात बताई गई। अपने साधु जीवन में परीषह आते हैं। परीषह अपने को नहीं जीते, हम परीषहों को जीते हैं।
आगमकार ने यह भी कह दिया कि बार-बार हाथ-पैर धोएँ, धोने आदि में रुचि लें तो सुगति दुर्लभ हो जाती है। आगम में आर्यों के बकुशी बनने की बात भी आती है।
अपेक्षानुसार सुख-सुविधा लेना एक बात है पर सुविधाओं में स्वाद नहीं लेना। इतना चलता है, इतनी गर्मी है आदि से आकुल-व्याकुल नहीं होना। बहुत सोना, सोते ही रहना भी अच्छा नहीं। साधु स्वाध्याय-ध्यान करे। अपना आगम लेकर बैठ जाए। गुरुदेव तुलसी लेट पोढ़ाते मगर टाईम से विराज जाते।
रात को कभी ग्यारह, साढ़े ग्यारह भी बज जाते पर प्रायः 4 बजे विराज जाते।
साध्वी जिनप्रभाजी: साध्वीप्रमुखाश्री के भी ऐसा ही था। रात को कितनी देर हो जाती पर प्रातः विराजना समय पर होता।
आचार्यप्रवर: आपके पोढ़ाने में तो देर होती होगी। मेरी बात सुनाई दे रही है ना?
साध्वी सुमतिप्रभा: हाँ, सुनाई दे रही है।
साध्वीप्रमुखाश्री: गुरुदेव के आभामंडल में बैठना ही सबसे बड़ी शक्ति है।
आचार्यप्रवर: साध्वीप्रमुखाश्री जी की जीवनशैली में कई बातें गुरुदेव तुलसी से मिलती हैं। कई बातें प्राकृतिक, सहज रूप से मिलती हैं। मैंने उस दिन बताया था।
साध्वीप्रमुखाश्री: गुरुदेव की होड़ (तुलना) कहाँ कर सकते हैं?
मुख्य नियोजिकाजी: मैंने एक दिन साध्वीप्रमुखाश्री से पूछा कि लेटे-लेटे विचार आते हैं क्या?
साध्वीप्रमुखाश्री ने फरमाया-नहीं, तो मैंने निवेदन किया कि तब तो आप आचार्य महाप्रज्ञजी जैसे हो गए।
साध्वीप्रमुखाश्री: उनकी होड़ मैं कर सकती हूँ क्या?
आचार्यप्रवर: ये बातें, चर्चा जो हो रही है वो अपने भी काम आ जाती है और आपका (साध्वीप्रमुखाश्री का) नैकट्य तो है ही।
साध्वीप्रमुखाश्री: कृपा कराई।
सायं लगभग 5ः34 पर
आचार्यप्रवर: आराधना में शरण लेने की बात कही गई है। चार शरण बनाए गए हैं-
अर्हत् सिद्ध, साधु, धर्म। आदमी को शरण औरों की भी मिल सकती है किंतु
‘नालं ते तव ताणाय वा सरणाय वा’
सापेक्ष बात है। यह निश्चय की बात है। व्यवहार में शरण अन्य समयकों की भी मिल सकती है। धर्म की एक शरण है। भगवान् को भी तो इस जीवन से एक बार पधारना ही पड़ा। शरण भी लें तो बड़ों की लें। प्रश्न है कि आचार्य और उपाध्याय का नाम तो है ही नहीं। ये सब साधु में आ जाते हैं। धर्म के अधिकृत प्रवक्ता तीर्थंकर ही है जिनसे बड़ा मिलना मुश्किल है। सारे शरणों में एक सारभूत है-धर्म, वीतराग प्रवचन। निर्जरा के 12 भेद धर्म हैं, श्रुत धर्म है, तप धर्म है-इसी धर्म की शरण है। इससे रोग-शोक सब मिट जाते हैं। ‘इणमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं’-संप्रदाय की बात गौण है, वीतराग धर्म मुख्य है। निर्ग्रन्थ प्रवचन ही धर्म है। वास्तव में जैन हो या नॉन जैन-वीतरागता, अध्यात्म ही धर्म है। उसकी शरण लेने से आदमी का कल्याण होता है।
साध्वीप्रमुखाश्री: कृपा करवाई, माइतपणा करवाया, शुभ दृष्टि करवाई।
आचार्यप्रवर: (मंगलपाठ विस्तारपूर्वक सुनाकर) सुखसातापूर्वक विराजें।

(क्रमशः)