उपासना (भाग - एक)
आचार्य शय्यंभव
प्रभव सक्षम आचार्य थे। वे चर्चा-प्रसंग से प्रतिद्वंद्वी शय्यंभव को जैनधर्म के प्रति प्रभावित कर सकते थे। पर उन्हें आचार्य प्रभव के पास ले आने का कार्य सरल न था। धर्मसंधहित की भावना से प्रेरित होकर युगल श्रमण इस कार्य के लिए प्रस्तुत हुए। वे आचार्य प्रभव के आदेशानुसार विद्वान् शय्यंभव के यज्ञवाट में गए। उन्होंने द्वार पर उपस्थित होकर धर्म लाभ कहा। वहाँ श्रमणों का घोर अपमान हुआ और उन्हें बाहर निकालने का उपक्रम चला। श्रमण बोले‘अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं विज्ञायते नहि’ अहो! खेद की बात है, तत्त्व नहीं जाना जा रहा है।
तत्त्व को नहीं जानने की बात महाभिमानी उद्भट विद्वान् शय्यंभव के मस्तिष्क से टकराई। सोचा, ये उपशांत तपस्वी झूठ नहीं बोलते। बस, हाथ में तलवार लेकर वे अध्यापक के पास गए और तत्त्व का स्वरूप पूछा। उपाध्याय ने कहा‘स्वर्ग और अपवर्ग को प्रदान करने वाले वेद ही परम तत्त्व हैं।’ शय्यंभव बोले‘वीतद्वेष, वीतराग, निर्मम, निष्परिग्रही, शांत महर्षि अवितथ भाषण नहीं करते, अत: यथावस्थित तत्त्व का प्रतिपादन करें। अन्यथा इस तलवार से शिरश्छेद कर दूँगा।’ लपलपाती तलवार को देखकर उपाध्याय काँप उठे और कहा‘अर्हत्-धर्म ही यथार्थ तत्त्व है।’
विद्वान् शय्यंभव महाभिमानी होते हुए भी सच्चे जिज्ञासु थे। यज्ञ-सामग्री अध्यापक को संभलाकर श्रमणों की खोज में निकले और एक दिन आचार्य प्रभव के पास पहुँच गए। प्रभव ने उन्हें यज्ञ का यथार्थ स्वरूप समझाया। अध्यात्म की विशद भूमिका पर जीवन-दर्शन का चित्र प्रस्तुत किया। आचार्य प्रभव की पीयूषावी वाणी से बोध प्राप्त कर शय्यंभव वी0नि0 64 (वि0पू0 406) में श्रमण-संघ में प्रविष्ट हुए। मुनि-जीवन ग्रहण के समय उनकी उम्र अट्ठाईस वर्ष की थी।
वे वैदिक दर्शन के धुरंधर विद्वान् पहले से ही थे। आचार्य प्रभव के पास उन्होंने चौदह पूर्वों का ज्ञान प्राप्त किया और श्रुतधर की परंपरा में वे द्वितीय श्रुतकेवली बने।
श्रुतसंपन्न शय्यंभव को अपना ही दूसरा प्रतिबिंब मानते हुए आचार्य प्रभव ने उन्हें वी0नि0 75 (वि0पू0 395) में आचार्य पद से अलंकृत किया।
ब्राह्मण विद्वान् का श्रमण-संघ में प्रविष्ट हो जाना उस युग की एक विशेष घटना थी। शय्यंभव जब दीक्षित हुए तब उनकी नवयुवती पत्नी गर्भवती थी। ब्राह्मण वर्ग में चर्चा प्रारंभ हुई
अहो शय्यंभवो भट्टो निष्ठुरेभ्योऽपि निष्ठुर:।
स्वां प्रियां यौवनवतीं सुशीलामपि योऽत्यजत्॥
विद्वान् शय्यंभव भट्ट निष्ठुरातिनिष्ठुर व्यक्ति है, जिसने अपनी युवती पत्नी का परित्याग कर दिया है। साधु बन गया है। नारी के लिए पति के अभाव में पुत्र ही आलंबन होता है। वह भी उसके नहीं हैं। अबला भट्ट-पत्नी कैसे अपने जीवन का निर्वाह करेगी? स्त्रियाँ उससे पूछतीं‘बहिन, गर्भ की संभावना है?’ वह संकोच करती हुई कहती‘मणयं’ यह मणयं शब्द संस्कृत के मनाक् शब्द का परिवर्तित रूप है, जो सत्त्व का बोध करा रहा था, कुछ होने का संकेत दे रहा था। भट्ट-पत्नी के इस छोटे-से उत्तर से परिवार वालों को संतोष मिला। एक दिन भट्ट-पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम माता द्वारा उच्चारित मणयं की ध्वनि के आधार पर मनक रखा गया। भट्ट-पत्नी ने मनक का अत्यंत स्नेह से पालन किया। बालक आठ वर्ष का हुआ। उसने अपनी माँ से पूछा‘जननी! मेरे पिता का नाम क्या है?’ भट्ट-पत्नी ने पुत्र के प्रश्न पर समग्र पूर्व वृत्तांत सुनाते हुए बताया‘तुम्हारे पिता जैन मुनि बन गए हैं।’ पितृ-दर्शन की भावना बालक में जगी। माता का आदेश ले वह स्वयं भट्ट की खोज में निकला। पिता-पुत्र का चंपा में अचानक मिलन हुआ। अपनी मुखाकृति से मिलती मनक की मुखमुद्रा पर आचार्य शय्यंभव की दृष्टि केंद्रित हो गई। अज्ञात स्नेह हृदय में उमड़ पड़ा। उन्होंने बालक के नाम, गाँव आदि के विषय में पूछा। अपना परिचय देता हुआ मनक बोला‘मेरे पिता आचार्य शय्यंभव मुनि कहाँ हैं? क्या आप उन्हें जानते हैं?’ बालक के मुख से अपना नाम सुनकर आचार्य शय्यंभव ने पुत्र को पहचान लिया और अपने को आचार्य शय्यंभव का अभिन्न मित्र बताते हुए उसे अध्यात्म-बोध दिया। बाल्यकाल के सरल मानस में संस्कारों का ग्रहण बहुत शीघ्र होता है। आचार्य शय्यंभव का प्रेरणा भरा उपदेश सुन मानक प्रभावित हुआ और आठवर्ष की अवस्था में उनके पास मुनि बन गया।
(क्रमश:)