जीव और पुद्गल से सीखें कि विरोधी होकर भी साथ कैसे रहें: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 1 अगस्त, 2022
क्षमाश्रमण आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में एक प्रश्न किया कि भंते! जीव और पुद्गल ये परस्पर एक-दूसरे से बंधे हुए, स्पृष्ट अवगाढ़, स्नेह से प्रतिबद्ध और परस्पर एकीभूत होकर रहते हैं क्या? उत्तर दिया गया हाँ रहते हैं। हमारे जीवन में हम देखते हैं-आत्मा और शरीर ये दो तत्त्व हैं। दोनों एक-दूसरे से मिले-जुले से हैं।
इससे भी गहरी बात हो सकती है कि आत्मा और कर्म घुले-मिले आपस में रहते हैं। कर्म तो पुद्गल हैं, आत्मा चेतन है। प्रश्न किया गया कि यह बात कैसे कही जा रही है? दोनों में एकता होती कैसे है? दोनों विरोधी है। जीव चेतन्यमय है-पुद्गल तो अचेतन है फिर चेतन और अचेतन में इतना घुल-मिलकर रहने की बात केसे हो सकती है? यह कैसे संभव होता है? जीव और पुद्गल में देखें तो समानता भी है और असमानता भी है। सामान्य गुणों की समानता है। जीव का भी अस्तित्व है और पुद्गल का भी अस्तित्व है। दोनों में वस्तुत्व, द्रव्यत्व है। दोनों प्रमेय है, ज्ञेय है। जीव के आत्म प्रदेश होते हैं, तो पुद्गल के भी प्रदेश परमाणु होते हैं। जीव अगुरु लघु है तो कुछ परमाणु भी अगुरु लघु है।
दोनों में एक ऐसा विरोध है, असमानता है, जो दोनों को अलग कर देती है। वह है एक तो जीव चेतन्यमय है, पुद्गल में चेतन्य नहीं होता। जीव अमूर्त है, अरूपी है, पुद्गल रूपी है, मूर्त होता है। दोनों विरोधी होकर साथ रह सकते हैं, तो हमें भी समाज में, परिवार में साथ रहना चाहिए। प्रकृति अलग-अलग हो सकती है। यह हम भगवती सूत्र के इस सूत्र से प्रेरणा ले सकते हैं कि विरोधी के साथ भी एक साथ रह सकें, इतनी क्षमता हमारे में हो, ऐसा हमें लक्ष्य और प्रयास रखना चाहिए।
जीव चेतन है, तो वह कभी अचेतन नहीं बनेगा, पुद्गल अचेतन है, तो कभी चेतन नहीं बनता। जीव न मूर्त बनता है और परमाणु कभी अमूर्त नहीं बनता। दोनों का अपना-अपना अस्तित्व है। संबंध और विसंबंध दो शब्द हैं। जीव का पुद्गल के साथ संबंध है, भी तो कई जीवों का संबंध है भी नहीं जैसे सिद्ध जीवों पुद्गल से संबंध नहीं होता। संसारी जीवों का पुद्गलों से संबंध होता है। संसारी जीवों को पुद्गल को छोड़कर व्याख्यात करना भी मुश्किल है, वे तो पुद्गलों के साथ जी रहे हैं। आचार्य सिद्धसेन ने बताया है कि जीव और पुद्गल दूध और पानी की तरह घुले-मिले रहते हैं। हमारी हर क्रिया में पुद्गल काम आते हैं।
जीव और कर्म का संबंध किस आधार पर होता है। गुुरु-सिद्ध आत्मा तो कर्मों को खेंचती नहीं है। हमारी आत्मा के साथ अनादि काल से कर्म चिपके हुए हैं, इसलिए हमारी आत्मा अशुद्ध है। कर्मों से मिली हुई आत्मा ही कर्मों को खींचती है। दोनों में स्नेह है, इस कारण दोनों खींचें जाते हैं। दोनों में बंधन-स्पर्शन हो जाता है। ताली दोनों हाथ से बजती है। परिवार पति-पत्नी, पिता-पुत्र में स्नेह होगा तो एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं।
जीव तो है, परिभोक्ता और पुद्गल है परिभोग्य। जीव-चेतन में परिभोक्तृत्त्व नाम का पर्याय होता है और अचेतन में परिभोग्य नाम का पर्याय होता है। इन पर्यायों के कारण जीव और पुद्गल में संबंध हो जाता है। साधना के साथ ही इस बात का संबंध है। साधना में पुद्गलों के संबंध को तोड़ना भी है, इसलिए समझ लें कि साधना क्या है। हम कर्मों के संबंधों को तोड़ने का प्रयास करें और हमारी आत्मा मुक्ति को प्राप्त करे, यह प्रयास हमें करना चाहिए।
पूज्यप्रवर ने कालूयशोविलास का विवेचन करते हुए फरमाया कि कालूगणी युवावस्था का नया आचार्य है, सुजानगढ़ में विराज रहे हैं, उनकी महानता-योग्यता सामने आ रही है। नए आचार्य के दर्शन करने साधु-साध्वियों के सिंघाड़े आ रहे हैं। छोगाजी भी बीकानेर से विहार कर पधार रही है। महासती जेठांजी आदि कई सतियाँ उनकी अगवानी में जा रही है। माँ छोगांजी व पुत्र रूप में आचार्य कालू के मिलन को देखने जनमेदिनी उमड़ रही है। छोगांजी अनिमेष आँखों से पुत्र कालू को निहार रही हैं।
छोगांजी व कानकंवरजी का सम्मान बढ़ाया गया है। छोगांजी ने भी उपहार रूप में 11 रजोहरण, 13 प्रामर्जनी व कई चीजें भेंट कर रही हैं। पूजय कालूगणी भी इतने उपहार देखकर चकित हो रहे हैं। पूज्य कालूगणी हर कार्य में मुनि मगनलालजी का परामर्श ले रहे हैं। आचार्य की माँ माँजी महाराज के रूप में कालूगणी के साथ रहना बड़ी बात है। आज से एक माह के लिए नमस्कार महामंत्र जप अनुष्ठान पूज्यप्रवर द्वारा उच्चारण कर शुरू करवाया गया। मुनि राजकुमारजी ने पंचरंगी तप भाइयों में कराने की प्रेरणा दी। तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि हमारे भीतर क्षमा के भाव भी हैं और कषाय भी हैं। हमें क्षमा की चेतना जागृत करनी है।