साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(77)

प्राणों को प्राणों का अर्पण फिर क्या गाऊँ।
नहीं द्वैत का दर्शन क्यों उपचार निभाऊँ।।

मानसरोवर के मोती जूठे हंसों के
मलयज पर रहता आया नागों का पहरा
दूध चाँदनी-सा उजला जूठन बछड़ों की
सूरज की किरणों पर साया तम का गहरा
पानी मछली का जूठा सागर सरिता में
पूजा की थाली में क्या नैवेद्य सजाऊँ।।

भौंरे मंडराते रहते हंसते फूलों पर
अधरों की जूठन हैं सारे शब्द हमारे
चिड़ियों का मुँह लगा हुआ उजले चावल पर
शलभ दीप की जलती लौ पर पंख पसारे
आँखों के आँसू भी जूठे हैं पलकों के
जूठन का कैसे तुमको उपहार चढ़ाऊँ।।

(78)

दीप! धरा का तम हर दो फैलाकर अपना रश्मि-वितान।
चित्र फलक जीवन का खाली उसमें अभिनव भर दो रंग
सपनों की दुनिया रंगीली देख हो रहा मानस दंग
पंखहीन पंछी को पर दो पड़ा हुआ जो बन बेभान।।

रहूँ देखती तुमको पल-पल इन आँखों में गहरी प्यास
जीवन की धड़कन बन जाओ पूरी होगी मन की आश
मिले तुम्हारी मंगल सन्निधि रूठे चाहे सकल जहान।।

दुनिया का भ्रमजाल देखकर देव! हो रही मैं भयभीत
कर दो अभय सुनाकर कोई शौर्यभरा अभिनव संगीत
जैसे चाहो वैसे ढालों में तो तुम ही भगवान।।

(79)

गणित जिंदगी का नहीं जब समझ में आया।
तब तुमने ही उसका गहरा राज बताया।।

मैंने मझधारा में अपनी नाव चलाई
दिखा दिया झट इंगित करके मुझे किनारा
धोखे के तट से जाकर टकराई जब वह
बिना माँगे ही औचक आकर दिया सहारा
दस्तक दी प्राणों के दरवाजे पर तुमने
जब गहरी खामोशी से मानस अलसाया।।

हार गई मैं जब जीवन के समरांगण में
नई शक्ति संप्रेषित करके विजय दिलाई
बदल निराशा को आशा में अनायास ही
संध्या के काले सायों को दी अरुणाई
थके हुए कदमों को नई चेतना देकर
आगे बढ़ने का तुमने उत्साह जगाया।।

(क्रमशः)