उपासना

स्वाध्याय

उपासना

उपासना (भाग - एक)

आचार्य अभयदेव (नवांगी टीकाकार)

स्वप्नावस्था में आचार्य अभयदेव को प्रतीत हुआ-विकराल काल महादेव ने मेरे शरीर को आक्रांत कर लिया है। इस स्वप्न के आधार पर आचार्य अभयदेव ने सोचा-‘मेरा आयुष्य क्षीणप्राय है, अतः अनशन कर लेना उचित है।’ स्वप्नावस्था में आचार्य अभयदेव के सामने धरणेन्द्र पुनः प्रकट होकर बोले-‘मैंने ही आपके शरीर को चाटकर आपका कुष्ठ रोग शांत कर दिया है।’
शासन-प्रभावना में जागरूग आचार्य अभयदेव ने कहा-‘देवराज! मुझे मृत्यु का भय नहीं है, पर मेरे रोग को निमित्त बनाकर पिशुनजनों के द्वारा प्रचारित धर्मसंघ का अपवाद दुःसह्य हो गया था।’
धरणेंद्र के निवेदन पर श्रावक-संघ के साथ आचार्य अभयदेव स्तम्भन ग्राम में गए। सेढ़िका नदी के तट पर धरणेंद्र द्वारा निर्दिष्ट स्थान पर उन्होंने ‘जयतिहुण’ नामक बत्तीस श्लोकों का स्तोत्र रचा। इस स्तोत्र-रचना से वहाँ पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई। अभयदेवसूरि द्वारा सेढ़िका नदी पर प्रतिमा प्रकटन की गौरववृद्धिकारक घटना से जनापवाद मिट गया। लोग अभयदेव की प्रशंसा करने लगे। धरणेंद्र ने स्तोत्र की दो प्रभावक गाथाओं को लुप्त कर दिया। खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि ग्रंथ के अनुसार गुजरात के खंभात नगर में टीका-रचना से पूर्व ही आचार्य अभयदेव कुष्ठ रोग से आक्रांत हो गए थे। शासनदेवी के द्वारा टीका-रचना की प्रार्थना किए जाने पर आचार्य अभयदेव ने कहा-‘देवी! मैं इस गलितांग शरीर से सूत्र-टीका करने में समर्थ नहीं हूँ।’
शासनदेवी ने कहा-‘आर्य! आप चिंता न करें। नवागी सूत्रों के रचनाकार एवं जैन दर्शन के महान् प्रभावक आप बनेंगे।’
विविध तीर्थकल्प के अनुसार आचार्य अभयदेव को शम्भाणा ग्राम में अतिसार रोग हो गया था। रोग को बढ़ते देख उन्होंने अनशन की बात सोची। निकटवर्ती ग्रामों में पाक्षिक प्रतिक्रमणार्थ आने वाले श्रावक समाज को दो दिन पहले ही आने के लिए और ‘मिच्छामि दुक्कड़’ (प्रायश्चित्त विशेष) ग्रहण करने के लिए सूचित कर दिया गया था। प्राप्त सूचना के अनुसार त्रयोदशी के दिन श्रावक एकत्रित हुए। उसी रात्रि को शासनदेवी ने प्रकट होकर आचार्य अभयदेव को टीका रचना की प्रेरणा दी। देवी से प्रेरित होकर ससंघ अभयदेव खम्भात गए। सेढ़िका नदी तट पर स्तोत्र की रचना की। पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई। जैन समाज की महती प्रभावना हुई। अभयदेव का कुष्ठ रोग खत्म हो गया था। शरीर स्वर्ण की तरह चमक उठा था।
उक्त दोनों ग्रंथों के अनुसार स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करने के पश्चात् ही आचार्य अभयदेव ने टीका-रचना का कार्य किया था।
स्तोत्र की दो चामत्कारिक गाथाओं को लुप्त कर देने का उल्लेख विविध तीर्थकल्प में भी है। कहा गया है, इन पद्यों का विधिवत् उच्चारण कर आह्वान करने पर देवों को आह्वानकर्ता के सामने उपस्थित होना ही पड़ता था। लोग इसका दुरुपयोग करने लगे थे। इसलिए देवों ने इन दो पद्यों को स्तोत्र-पाठ से विलग कर दिया था।
जैन शासन की अतिशय प्रभावनाकारक यह घटना प्रबल प्रसन्नता का निमित्तभूत होने के कारण इसे मनोवैज्ञानिक भूमिका पर आचार्य अभयदेव के रोगोपशांति का प्रमुख हेतु माना जा सकता है।
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि के अनुसार इस कार्य में पाल्हउदा ग्राम के श्रावकों का महत्त्वपूर्ण अनुदान रहा है। टीका साहित्य रचना का कार्य संपन्न करने के बाद आचार्य अभयदेव पाल्हउदा ग्राम में विहरण कर रहे थे। वहाँ स्थानीय श्रावक-समाज के सामने संकट की घड़ी उपस्थित हो गई थी। माल से भरे उनके जहाज समुद्र में डूबने के समाचार पाकर श्रावक खिन्न थे। यथोचित समय पर वे धर्मस्थान में नहीं पहुँच पाए। आचार्य अभयदेव स्वयं उनकी बस्ती में दर्शन देने गए। वहाँ उन्होंने पूछा-‘श्रावको! वंदन-वेला का अतिक्रमण कैसे हुआ?’ श्रावकों ने नम्र होकर माल-भरे जहाजों के समुद्र में नष्ट हो जाने का चिंताजनक वृत्तांत कह सुनाया।

(क्रमशः)