बहुत ही उपयोगितापूर्ण है उपासक श्रेणी: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 25 जुलाई, 2022
महाश्रमणोपासक, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आज उपासक प्रशिक्षक शिविर के मंचीय कार्यक्रम में नव प्रशिक्षित उपासकों को प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि उपासक श्रेणी का ये शिविर जो प्रशिक्षण के लिए उपयोगी होता है। विगत दो वर्षों में विकट स्थिति में शिविर लगाने की स्थिति नहीं रही। उपासक श्रेणी बहुत ही उपयोगितापूर्ण श्रेणी है। जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में लंबे काल से ये उपासक श्रेणी पालित, पोषित, संवर्धित, विकसित हो रही है।
उपासक श्रेणी का काफी व्यवस्थित रूप लग रहा है और भी आगे विकास होता रहे। जो उपासक श्रेणी में सम्मिलित होते हैं। उनके लिए भी अच्छी बात है। इसके माध्यम से सेवा भी देते हैं, अपना खुद का भी विकास कर सकते हैं। पर्युषण यात्रा में जाना तो एक अंग है। यह तो काफी अंशों में चिरस्थायी सा तत्त्व है। घर में रहे तो भी वह उपासक ही है। इस प्रकार की अनुभूति उपासकों में है, तो ठीक है, नहीं है तो होनी चाहिए। आचार संहिता की एक दीक्षा सी स्वीकार हो जाए कि हम उपासक हैं। ऐसा प्रारूप होना चाहिए। जहाँ मौका मिले कार्य करते रहें। क्षेत्रों की यात्रा कर श्रावक समाज की सार-संभाल होती है। गंगाशहर में भी केंद्र चल रहा है। उपासक जहाँ अपेक्षा हो किसी को संथारा पचक्खाना हो तो भाव का परिणाम देखकर पचक्खा सकते हैं। तत्त्वज्ञान का भी अपनी क्षमतानुसार विकास करें। खूब विकास करें, अच्छी सेवा करती रहें।
इससे पूर्व तीर्थंकर के प्रतिनिधि, सुख सागर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती आगम का विश्लेषण करते हुए फरमाया कि जब पूर्वकृत मोहनीय कर्म का उदय काल होता है, तो जीवन आध्यात्मिक विकास कर सकता है क्या? उत्तर दिया गया-कर सकता है। वह जो विकास करता है, वह वीर्य भाव में विकास करता है। जैन तत्त्व ज्ञान में आठ कर्म बताए गए हैं। उनमें चारित्र और सम्यक्त्व को विकृत करने वाला कर्म मोहनीय कर्म होता है। मोहनीय कर्म के दो विभाग हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय सम्यक्त्व को न आने देने वाला है, पर साथ में चारित्र मोहनीय का एक अंश अनंतानुबंधी कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ। इसका भी सम्यक्त्व को न आने देने में योगदान रहता है। जब इन दोनों का हल्कापन होता है या विलय होता है, तब सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है।
मोहनीय कर्म के उदयकाल में भी आत्मा विकास कर सकती है। जब मोहनीय कर्म का उदय हल्का हो और जब विकास होगा तभी आत्मा आगे बढ़ेगी और मोक्ष को प्राप्त होगी। पूज्यप्रवर ने आगे फरमाया कि कभी-कभी मोहनीय कर्म के उदय से ह्रास भी हो सकता है। सम्यक्त्वी से मिथ्यादृष्टि बन सकता है। तीन चीजें हैं-सम्यक् दर्शन, देशव्रत और सर्वव्रत-ये अध्यात्म की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। मिथ्या दृष्टि में भी यत्किंचित विकास हो सकता है, इसलिए वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। सर्वविरति का देश विरति या देश विरति का अविरति न बन जाए, सम्यक्त्वी मिथ्या दृष्टि न बन जाए यानी अपकरण, ह्रास की ओर आत्मा न चली जाए।
विकास करना है और करना भी चाहिए, पर ह्रास की ओर न जाएँ। छठे गुण स्थान में पंडित वीर्य, पाँचवें गुणस्थान में बाल पंडित वीर्य और चौथे गुणस्थान में बाल वीर्य होता है। साधु जो छठे गुण स्थान में है, इसके प्रति सम्यक् रहें, साधना में और आगे बढ़ें। साधु में पंडित वीर्य है, वो व्रत की दृष्टि से है। ज्ञान से पंडित होना एक बात है। पर आगम की इस भाषा में जिसमें साधना नहीं है, वह अपंडित है। तब जक विरति नहीं आई है, वो पंडित वीर्य नहीं है। श्रावक में आंशिक व्रत होता है, इसलिए उसमें बालता भी है और पंडितता भी है। दोनों का मिश्रण है। इसलिए श्रावक बाल पंडित है। बारह व्रत में आगे और विकास करना चाहिए। सुमंगल साधना ग्रहण करें। इसके छः नियम और कठिन हैं। आध्यात्मिक साधना में विकास हो सकता है।
साधु को भी और विकास करना चाहिए। श्रावक भी साधुओं से प्रेरणा लेकर जीवन निर्मल बना सकते हैं। चतुर्मास में तो ज्यादा से ज्यादा त्याग-प्रत्याख्यान, संयम रहे। ज्यादा आरंभ-संभारंभ से बचें। गृहस्थ अनेक रूपों में उपस्थान कर सकता है। संयम की दिशा मे आगे बढ़ सकता है। शनिवार की 7 से 8 सायं की सामायिक हो। मुख्य प्रवचन के पश्चात पूज्यप्रवर ने कालूयशोविलास का सरस विवेचन किया। साध्वी साधनाश्री जी 14 की तपस्या के प्रत्याख्यान किए। साध्वी केवलयशाजी ने अपनी भावना रखी। उपासक श्रेणी के शिक्षार्थी संतोष बोथरा, भरत बोथरा ने अपने अनुभव बताए। राष्ट्रीय संयोजक सूर्यप्रकाश सामसुखा, महासभा के महामंत्री विनोद बैद ने भी अपनी भावना रखी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।