संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(10) आत्मीयेषु च भावेषु, नात्मानं यो हि पश्यति।
तीव्रमोहविमूढात्मा, मिथ्यादृष्टिः स उच्यते।।
जो आत्मीय भावों में आत्मा को नहीं देखता और तीव्र मोह-अनंतानुबंधी कषाय के उदय से जिसकी आत्मा विमूढ है, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है।
मोह-कर्म की सोलह मुख्य कर्म-प्रकृतियाँ हैं-
अनंतानुबंधी-क्रोध, मान, माया, लोभ।
अप्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ।
प्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ।
संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लोभ।
मिथ्यादृष्टि में अनंतानुबंधी मोह का तीव्र उदय रहता है। मोह की अल्प मात्रा भी आत्म-विकास में बाधक है। जहाँ तीव्र मोह होता है, वहाँ आत्म-विकास, का स्वप्न देखना भी असंभव है। मोह आत्मा को विमूढ़ किए रखता है। विमूढ़ व्यक्ति न सम्यक् देखता है, न सम्यक् जानता है और न सम्यक् आचरण करता है। वह विभाग को अपना मानता है और वहीं चिपका रहता है। स्वभाव की ओर उसकी दृष्टि स्फुरित नहीं होती। आचार्य यशोविजयजी कहते हैं कि मोह के इस मंत्र ने समग्र जगत् को अंधा बना रखा है। पर-भावों में यह मेरा है, मैं इसका हूँ, इसी को उलटकर यों कह दिया जाए कि-यह मेरा नहीं है और में इसका नहीं हूँ-तो वह व्यक्ति मोहजित् हो जाता है।
(11) यथार्थनिर्णयः सम्यग्-ज्ञानं प्रमाणमिष्यते।
दृष्टि प्रामाणिकी चैषा, दृष्टिरागमिकी परा।।
वस्तु का यथार्थ निर्णय करने वाला सम्यग् ज्ञान ‘प्रमाण’ कहलाता है। यह प्रमाण-मीमांसा की दृष्टि है और आगमिक दृष्टि इससे भिन्न है।
(क्रमशः)