जैन शासन का महत्त्वपूर्ण अंग है-सामायिक: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 12 अगस्त, 2022
युवा मनीषी, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आगम वाणी की अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमायाµभगवती सूत्र में कहा गया है कि अतीत में भगवान पार्श्वनाथ तेवीसवें तीर्थंकर के रूप में विराजमान थे। जैन आगमों में 24-24 तीर्थंकरों की व्यवस्था बताई गई है। अवसर्पिणी काल, उत्सर्पिणीकाल ये कालचक्र के दो विभाग हैं। अवसर्पिणी काल में अवरोहण होता है और उत्सर्पिणी काल में आरोहण होता है। जैसे घड़ी में बारह अंक होते हैं, वैसे ही कालचक्र में 12 आरे होते हैं। जैसे घड़ी में 1 से 6 अंक तक अवरोहण होता है वैसे ही अवसर्पिणी काल में भी यह कुछ ह्रास होता है। जैसे आदमी का आयुष्य, अवगाहना न्यूनता की ओर आती है।
अवसर्पिणी काल के प्रथम आरे में तीन पल्योपम का, यौगलिकों का और तीन कोस अवगाहना होती है। वह घटते-घटते कम होते जाते हैं। आयुष्य और अवगाहना में ह्रास होता है। जैसे 6 के बाद घड़ी की सुइया आरोहण करती है, वैसे ही उत्सर्पिणीकाल शुरू होगा, उसमें भी छः आरे होंगे। जिस गति से ह्रास हुआ था, उसी गति से विकास होगा। वह चलते-चलते वापस वही तीन पल्योपम का आयुष्य और वही तीन कोस अवगाहना हो जाएगी। फिर ह्रास, फिर विकास, यह हमारी सृष्टि में क्रम चलता रहता है। इस काल चक्र के हर अवसर्पिणी में और हर उत्सर्पिणी में 24-24 तीर्थंकर भरत क्षेत्र में होते हैं। यह शाश्वत क्रम है कि एक कालचक्र में 48 तीर्थंकर होते रहते हैं। वर्तमान में अवसर्पिणी कालचक्र चल रहा है।
पूज्यप्रवर ने भगवान पार्श्व और भगवान महावीर के समय का उल्लेख करते हुए फरमाया कि सामायिक ही आत्मा है। व्यवहार में सावद्य विरति सामायिक है। साधु के तो जीवन भर की सामायिक होती है। गृहस्थ के एक मुहर्त की सामायिक होती है। साधु के तो तीन करण तीन योग से सावद्य विरति होती है, पर श्रावक के सामान्यतया दो करण-तीन योग से त्याग होते हैं। साधु के संपूर्ण सामायिक है, श्रावक के आंशिक सामायिक है। एक पास पूर्ण मोदक है और एक के पास मोदक का टुकड़ा है, पर स्वाद दोनों का एक जैसा ही आएगा।
सामायिक अपने आपमें एक है, परंतु भाषा का अंतर है। भगवान महावीर के समय भगवान पार्श्व की परंपरा भी चल रही थी, उनके भी साधु होते थे। दोनों परंपरा के साधु आपस में मिलते तो जिज्ञासा होती कि हम साधु हैं, फिर ये अंतर क्यों? हमारे उपकरण या श्रावक के उपकरण सामायिक नहीं है, सामायिक तो आत्मा में हैं। त्याग है, वो आत्मा में है। जैन शासन का महत्त्वपूर्ण अंग हैµसामायिक। समता धर्म है, विषमता पाप है, यही जैन धर्म का सार है। सामायिक एक आचरणीय धर्म है।
शनिवार की शाम 7 से 8 बजे के बीच यथासंभव जैन श्वेतांबर तेरापंथ के लोग सामायिक का प्रयोग करें, अच्छा है। जहाँ अनुकूलता हो, स्थान हो वहाँ कर सकते हैं। सामायिक एक धार्मिक अनुष्ठान है। सावद्य प्रवृत्ति का त्याग है। सावद्य यानी पाप सहित प्रवृत्ति-योग का त्याग होता है। उपकरण तो सहायक तत्त्व है। सामायिक में स्वाध्याय करें। प्रवचन सुनने से दोनों कार्य हो जाते हैं।
कालूयशोविलास काव्य ग्रंथ का विवेचन करते हुए फरमाया कि पूज्य कालू गणी वि0सं0 1973 का चतुर्मास करने जोधपुर पधार रहे हैं। 24 साधु और 28 साध्वियाँ साथ में हैं। चतुर्मास पूर्ण कर पूज्य लाडनूं होते हुए बीदासर में माजी महाराज को दर्शन दिराने पधारते हैं।
वि0सं0 1974 का चतुर्मास की महर सरदारशहर पर हो रही है। 25 संत और 24 साध्वियाँ साथ में हैं। उस समय वर्षा का उत्पात सा हो गया था। गुरुदेव के स्वास्थ्य में कठिनाई आ रही है। उससे पहले मुनि मगनलालजी के स्वास्थ्य में भी व्याधि उत्पन्न हो जाती हैं। डॉ0 अश्विनी मुखर्जी के उपचार से दोनों स्वस्थ हो जाते हैं। सरदारशहर में एक इटालियन विद्वान डॉ0 देसीवेरी आते हैं, गुरुदेव के दर्शन करते हैं। सरदारशहर से पूज्य गुरुदेव चूरू पधारते हैं वहाँ एक इतिहास की, विकास का क्रम बन रहा है।
महासभा के पदाधिकारियों ने पूज्यप्रवर के दर्शन किए। पटना के तनसुखलाल जैन ने अपनी पुस्तक-यात्रा स्वयं से स्वयं तक श्रीचरणों में अर्पित की। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। मुनि राजकुमार जी ने तपस्या की प्रेरणा दी। साध्वीवर्याजी ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन अनेक क्रियाएँ करता है। जीवन में सबसे अधिक क्रियाµसोचने की होती है। जीवन यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण घटक हैµचिंतन। सोचना एक कला है। चिंतन सकारात्मक हो। सफलता का महत्त्वपूर्ण घटक हैµसकारात्मक सोच। सकारात्मक सोच रीढ़ की हड्डी के समान है। तेरापंथ महिला मंडल की मंत्री अल्का बैद ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुजार जी ने समझाया कि दीक्षा में अंतराय देने से वे कर्म आगे उदय में आ सकते हैं।