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अवबोध
धर्म बोध
दान धर्म
प्रश्न 24 : विसर्जन, वितरण में कहाँ तक संगति है?
उत्तर : विसर्जन का अर्थ है अपनी वस्तु के स्वामित्व को छोड़ना। उस परित्यक्त या विसर्जित वस्तु की व्यवस्था करना वितरण है। विसर्जन करने वाला व्यक्ति यह सोचता है कि मैं समाज में जीता हूँ तो समाज का मेरे पर उपकार है। मैं भी समाज की उन्नति के लिए कुछ करूँ। इस दृष्टि से वह विसर्जित वस्तु को समाज की प्रगति के लिए नियोजन करता है, व्यवस्था करता है, उसका वितरण में समावेश हो जाता है। विसर्जन धर्म की कोटि में आता है, जबकि वितरण को धर्म नहीं कहा जा सकता।
प्रश्न 25 : चंदा आदि देना क्या है?
उत्तर : धन स्वयं परिग्रह है। उसका ग्रहण, दान व संरक्षण परिग्रह को पोषण देता है, इसलिए चंदा व इस सदृश प्रवृत्तियों में धर्म नहीं हो सकता।
प्रश्न 26 : समाज के व्यवहार को निभाना क्या धर्म नहीं है?
उत्तर : समाज के व्यवहार को निभाना आत्म धर्म नहीं, समाज धर्म है। जिस प्रवृत्ति में ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप की अभिवृद्धि होती है, वह आत्म धर्म है। जिस प्रवृत्ति में समाज का व्यवहार निभता है, वह समाज धर्म है।
प्रश्न 27 : कुआँ व तालाब खुदवाना, कमजोर वर्ग की सहायता आदि करना बहुत उपयोगी कार्य है, फिर उनमें आत्म धर्म क्यों नहीं?
उत्तर : उपयोगिता अलग है, अध्यात्म अलग है। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सेना की भी अपनी उपयोगिता है, किंतु अध्यात्म प्राणीमात्र के साथ मैत्री संबंध स्थापित करने की प्रेरणा देता है। उसके लिए सेना की कोई उपादेयता नहीं है। दोनों की दिशा भिन्न है, वे एक कैसे हो सकती है।
शील धर्म
प्रश्न 1 : शील किसे कहते हैं?
उत्तर : शील का अर्थ है ब्रह्मचर्य (मैथुन विरमण), चर्या (आचार का पालन)। जिसमें मोक्ष के लिए ब्रह्मµसर्व प्रकार के संयम की चर्याµअनुष्ठान हो, वह ब्रह्मचर्य है। वस्ति (इंद्रिय) संयम अर्थात् वस्ति निरोध संयम है। इस अर्थ में सर्व दिव्य और औदारिक काम और रति-सुखों में मन, वचन, काया और कृत, कारित व अनुमोदन रूप से विरति ब्रह्मचर्य है।
(क्रमश:)