गृहस्थ भी करे अपरिग्रह की दिशा में विकास: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 10 अगस्त, 2022
अप्रमत्त महासाधक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए लाघव प्रशस्त है क्या? उत्तर दिया गया कि श्रावक-निर्ग्रन्थों के लिए लाघव प्रशस्त है, बहुत अच्छी है। श्रमण-निर्ग्रन्थ जो अपरिग्रह के साधक हैं। उनकी न तो रुपये, पैसे से न अपने मकान से, न कोई जमीन होती है। गृहस्थ और साधु में एक बड़ा अंतर यह है कि आमतौर से गृहस्थ परिग्रही होता है और साधु अपरिग्रही होता है। साधु को अणगार कहा गया और गृहस्थ को सागार कहा गया है। गृहस्थ यानी घर में रहने वाला। जैन साधु का कहीं परिग्रह नहीं होना चाहिए। साधु के तो ज्ञान-दर्शन मेरा है। परिग्रह की चीजों के साथ साधु का संबंध नहीं होना चाहिए।
साधु के उपाधियाँ, कपड़े आदि अल्प रहें। साधु में असंग्रह की वृत्ति होनी चाहिए। थोड़ा संग्रह रखना। दूसरी बात है-अल्पेच्छा। साधु की अपेक्षाएँ थोड़ी होनी चाहिए। तीसरी बात साधु में अमूर्च्छा रहे। उपाधि है, उसमें मूर्च्छा न हो। साधु ये न बोले कि यह मेरी है। यह बोले कि यह मेरी निश्रा में है। चौथा शब्द बताया-अगृद्धि। खाते समय भी आसक्ति न हो। भोजन की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। पाँचवाँ शब्द है-अपरिबद्धया। जो स्वजन है, ज्ञातिजन है, नातिले हैं, उनमें मोह नहीं रखना चाहिए। अवांछनीय रूप में मोह नहीं रखना चाहिए। श्रमण-निर्ग्रन्थ के लिए लाघव प्रशस्त है, अच्छा है। ये पाँचों चीजें श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त है। ये पाँचों साधु की अपरिग्रह की चेतना से जुड़ी हुई चीजें हैं। मोह, ममता, मूर्च्छा इनसे साधु विरत रहेगा, तो साधु का साधुत्व निर्मल और अच्छा रह सकेगा।
हम गृहस्थों-श्रावकों को देखें, गृहस्थ भी परिग्रह कम रखें। ढलती उम्र में तो जितना परिग्रह कम हो सके, अच्छा है। गृहस्थ के लिए भी परिग्रह बंधन होता है। मेरापन-ममत्व कम हो। बारह व्रतों में पाँचवाँ व्रत ‘इच्छा परिमाण’ अपरिग्रह का ही रूप है। इच्छाओं का परिसीमन करें। सातवाँ व्रत है-उपभोग-परिभोग व्रत। भोगोपभोग की सीमा करें। सादगी और संयमपूर्ण जीवन आत्मा की दृष्टि से हितकर होता है। आत्मा में भारीपन नहीं आता है। सादगी व अच्छे जीवन से आदमी कीमती बनता है। हमारा ज्ञान और हमारे विचार उसके अनुरूप हों। ये गहने भी भार है। हमारे गुणों के गहने अच्छे रहें। गृहस्थों का भी अपरिग्रह की दिशा में विकास हो, यह काम्य है।
परम पावन ने कालूयशोविलास आख्यान का विवेचन करते हुए फरमाया कि उदयपुर में मालवा के लगभग 600 लोग पूज्यकालूगणी से मालवा पधारने की अर्ज करते हैं। कालूगणी ने कुछ आश्वासन मालवा के लोगों को दिया। मालवा की तरफ विहार भी किया। कानोड़ पधार भी जाते पर मालवा के लिए अंतराय आ जाती है। केलवा आदि मेवाड़ के क्षेत्रों में विचरण हो रहा है। वहाँ से मारवाड़ पधार रहे हैं। कांठा क्षेत्र में विचरण करा रहे हैं। पाली में मर्यादा महोत्सव हो रहा है। दीक्षा भी हुई है। सिवांची-मालाणी की यात्रा करवा रहे हैं। जोधपुर चतुर्मास के लिए पधार रहे हैं।
मुनि विकासकुमार जी ने सुदी तेरस पर गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।