आत्मा के आसपास
प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा
अकर्म से निकला हुआ कर्म
अकर्म में कर्म और कर्म में अकर्म की स्थिति अभ्यास द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। अभ्यास जितना गहरा होगा, अनुभव उतना ही पुष्ट होगा। प्रारंभिक अभ्यास के क्षणों में बाहरी आलंबन भी काम करता है। आज प्रातः हालैंड के राजदूत एच0 लियोपोल्ड आए थे। वार्तालाप के बीच उन्होंने पूछा कि जैनों में मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक दो संप्रदाय हैं। आप उनमें से कौन हैं? मैंने उनको बताया कि हम अमूर्तिपूजक हैं तो उन्होंने साश्चर्य कहा-‘मूर्ति में आर्ट है, इतिहास है और वह एकाग्रता का साधन है। फिर भी आप उसे क्यों नहीं मानते? मैंने उनको समझाते हुए कहा-‘हम मूर्ति को नहीं मानते हैं, यह बात नहीं है। मूर्तियाँ हमारी संस्कृति की प्रतीक हैं। उनमें कला है, इतिहास है और व्यक्ति को एकाग्र बना देने का गुण है। इनसे हमारी कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। इस दृष्टि से मूर्तियों की उपयोगिता निर्विवाद है। हमारी यह मान्यता है कि वे पूजने की वस्तु नहीं है। उनका आलंबन लिया जा सकता है, पर उनकी पूजा करने की बात हमारी समझ में नहीं आती। हम आलंबन को आलंबन समझें और जब तक आवश्यकता अनुभव हो, ध्यान के लिए भी आलंबन लेते रहें। एक स्थिति तक पहुँचने के बाद आलंबन की अपेक्षा नहीं रहती, उस स्थिति में उससे बंधकर रहने की भी जरूरत नहीं है। इस संदर्भ में मैं आपको एक पौराणिक कहानी सुना रहा हूँ-
एक बार मेढकदेव ध्यान लगाकर बैठा। वह ध्यान में इतना एकाग्र हो गया कि शंकरजी का आसन प्रकंपित हो गया। वे मेढक देव के सामने प्रकट होकर बोले-‘मैं आपकी साधना से प्रसन्न हूँ। कहिए, आपकी क्या सेवा करूँ?’ मेढकदेव बोला-‘और तो मुझे कोई अपेक्षा नहीं है, पर जब मैं ध्यान लगाकर बैठता हूँ तो एक चूहा इधर आता है। उसे देखते ही मैं काँप जाता हूँ। आप कुछ कर सकें तो मुझे इस संकट से मुक्त कर दें।’
शंकर ने मेढक को जंगली चूहा बना दिया। अब उसे चूहे से कोई भय नहीं रहता, पर उसका ध्यान बिल्ली ने ले लिया। शंकर ने फिर अनुकंपा की और उसे बिल्ली बना दिया। बिल्ली से कुत्ता, कुत्ते से चीता और चीते से शेर बन जाने पर भी मेढकदेव की व्यथा समाप्त नहीं हुई। अब उसे उन शिकारी आदमियों का भय सताता है जो हाथ में बंदूक लेकर जंगल में घूमते हैं। मेढक शंकरजी के सहारे साधना को निर्विघ्न देखना चाहता था, पर उससे समाधान नहीं मिला तो उसने आलंबन छोड़कर देखना चाहा। इस बार उसने शंकर से अनुरोध किया कि मुझे पुनः मेढक बना दो। भय के सारे मार्गों से गुजरने के बाद वह अपनी मूल स्थिति में लौटा और निर्भय होकर ध्यान में बैठ गया। भय से ऊपर उठने के बाद जैसी एकाग्रता हुई, वह विलक्षण थी।
इस कहानी से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि साधक को प्रारंभ में आलंबन की अपेखा रहती है, पर अभ्यास जितना गहरा होगा, आलंबन छूटता जाएगा। ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियों की अपेक्षा होती है, पर चढ़ जाने के बाद वे अंकिचित्कर हो जाती हैं। सीढ़ियाँ चढ़ते ही जाएँ और मंजिल तक न पहुँचें, यह केसे हो सकता है? इसी प्रकार कर्म करते ही जाएँ और कभी अकर्म न बनें तो उसका क्या अर्थ?
कोई भी साधक सहसा अकर्म नहीं बन सकता। वह अकर्म में कर्म और कर्म में अकर्म का सूत्र पकड़ ले तो समस्या का समाधान हो सकता है। पर यहाँ भी एक कठिनाई यह है कि व्यकित को ज्ञात ही नहीं हो पाता कि वह अकर्म हुआ या नहीं? ज्ञान के अभाव मे ंकोई भी काम सही समय पर कैसे हो सकता है। रात के ग्यारह बज रहे थे। एक व्यक्ति ने डॉक्टर के घर की घंटी बजाई क्योंकि उस व्यक्ति को कुत्ते ने काट खाया था, इसलिए उसे डॉक्टर के सहयोग की अपेक्षा थी। डॉक्टर ने उठकर द्वार खोला। सामने मरीज को खड़ा देख वह झल्लाकर बोला, ”दस बजे के बाद किसी भी मरीज को चिकित्सा-सेवा उपलब्ध नहीं होगी, बोर्ड पर लिखी हुई यह सूचना तुमने पढ़ी नहीं?’ आगंतुक मुसकुराता हुआ बोला, ”डॉक्टर साहब! मैं जानता हूँ कि दस बजे के बाद आप किसी को नहीं देखते। पर कुत्ते को यह पता नहीं था। उसने मुझे दस बजे के बाद काटा इसलिए असमय में आपको तकलीफ दे रहा हूँ।’
अकर्म कब और कैसे बना जाता है? यह तत्त्व जब तक हमको ज्ञात नहीं होगा, हम कर्म और अकर्म के द्वंद्व में उलझे रहेंगे। इसलिए साधना के प्रारंभ में हम अकर्म बनने का व्यामोह छोड़कर कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने की वृत्ति को विकसित करें। इससे जो रूपांतरण घटित होगा वह कर्म को अकर्म में बदल देगा और अकर्म में ऐसे कर्म का उद्भव करेगा जो हमारी अंतर्यात्रा में सहयोगी बन सकेगा।
मनोबल कैसे बढ़ाएँ?
शब्द की शक्ति विचित्र है, पर उससे भी अधिक शक्ति है-संस्कारों की। शब्द सुने और विस्मृत हो गए। पर संस्कारों में जो बात आ जाती है, वह सहज रूप से नहीं छूटती। संस्कार दो प्रकार के होते हैं-नैसर्गिक और निमित्तज। नैसर्गिक संस्कारों का वातावरण पर प्रभाव कम होता है। यही कारण है कि प्रवचन सुनने या साहित्य पढ़ने पर भी जीवन क्रम में परिवर्तन नहीं आता। निमित्तज संस्कार निर्मित होते हैं। इनमें सुनी या पढ़ी हुई बात का इतना प्रभाव होता है कि मन से निकलती ही नहीं। संसार में दोनों प्रकार के व्यक्ति होते हैं। कुछ व्यक्ति इतने संस्कारी होते हैं कि उनका मनोबल बढ़ता रहता है। उनके सामने कोई छोटी-मोटी घटना घटित हो जाए तो उन पर उसका कोई असर नहीं होता। वे लोग वहाँ अटकते नहीं, किंतु उस अवरोध को लाँघकर आगे बढ़ जाते हैं। कुछ व्यक्ति साधारण-सी घटना से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि उनका मनोबल टूट जाता है। ऐसे व्यक्तियों को सलक्ष्य प्रयोग कर ऊँचे संस्कारों का विकास करना चाहिए। अच्छे संस्कारों का निर्माण करना और प्राप्त संस्कारों को प्रगाढ़ बनाना-ये दोनों क्रम बराबर चलते रहें तो मनोबल को बहुत बड़ा आलंबन मिल जाता है।
(क्रमशः)