उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य हेमचंद्र

प्रबंध चिंतामणि के अनुसार जब बालक आठ वर्ष का था, तब अपने समन्वयस्क बालकों के साथ क्रीड़ा करता हुआ देव-मंदिर में पहुँच गया। संयोग से वहाँ देवचंद्रसूरि पधारे हुए थे। अपनी मस्ती में क्रीड़ा करता हुआ बालक देवचंद्रसूरि के पट्ट पर बैठ गया। बालक के शरीर पर शुभ लक्षणों को देखकर देवचंद्रसूरि ने सोचाµ‘अयं यदि क्षत्रियकुले जातस्तदा सार्वभौमचक्रवर्ती, यदि वणिग् विप्रकुले जातस्तदा महामात्यः, चेद्ददर्शनं प्रतिपद्यते तदा युगप्रधान इव कलिकालेऽपि कृतयुगावतारमपि।’ यह बालक क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ है तो आवश्य ही चक्रवर्ती पद ग्रहण करेगा और वणिक् पुत्र अथवा विप्र पुत्र है तो महामात्य पद को सुशोभित करेगा। धर्मसंघ में प्रविष्ट होकर यह बालक युग-प्रवर्तक होगा। कलिकाल में यह कृतयुग का अवतार होगा।
बालक को प्राप्त करने के लिए उन्होंने तत्रस्थ नागरिकों से एवं व्यापारिक बंधुओं से संपर्क स्थापित किया। उनको साथ लेकर वे चाचिग के घर गए। चाचिग संयोग से वहाँ नहीं था। वह दूसरे गाँव गया हुआ था। पाहिनी गुणवती एवं व्यवहार-कुशल महिला थी। अपने प्रांगण में समागत अभ्यागतों का उसने समुचित स्वागत किया। देवचंद्रसूरि का धार्मिक विधिपूर्वक अभिनंदन किया। समागत बंधुओं ने देवचंद्रसूरि के आगमन का उद्देश्य पाहिनी को बतलाया और धर्मसंघ के लिए पुत्र अर्पण कर देने की बात कही। पुत्र की याचना के लिए ससंघ गुरु का पदार्पण घर पर हुआ है। ऐसे योग्य पुत्र की वह माता है, उसे इसका हर्ष था पर पति के विरोध की आशंका से वह चिंतित थी। समागत बंधुजनों के सम्मुख हर्षमिश्रित आँसुओं का विमोचन करती हुई पाहिनी बोलीµ‘गुरुवर्य! इस बालक के पिता नितांत मिथ्यादृष्टि हैं। वे घर पर भी नहीं हैं। मैं धर्मसंकट की स्थिति में हूँ। उनकी सहमति के बिना यह कार्य कैसे संभव हो सकता है?’
पाहिनी को धैर्य से समझाते हुए श्रेष्ठिजन बोलेµ‘बहिन! तुम अपनी ओर से उसे गुरु को प्रदान कर दो। माता का भी संतान पर अपना हक होता है।’
सम्मानित गणमान्य श्रेष्ठिजनों के कथन पर पाहिनी ने अपना पुत्र देवचंद्रसूरि को अर्पित कर दिया। देवचंद्रसूरि ने बालक की इच्छा जाननी चाही और उसे पूछाµवत्स! तू मेरा शिष्य बनेगा? बालक ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाकर ‘आम्’ कहकर अपनी भावना प्रकट की और वह शिष्य बनने के लिए सहर्ष तैयार हो गया।
देवचंद्रसूरि योग्य बालक को पाकर प्रसन्न हुए। वे इसे लेकर कर्णावती पहुँचे। वहाँ सुरक्षा की दृष्टि से बालक को उदयन मंत्री के पास रख दिया। मंत्री उदयन जैन धर्म के प्रति आस्थाशील था। श्रेष्ठी चाचिग जब घर आया तब बालक को घर पर न पाकर अत्यंत दुःखी हुआ। नाना प्रकार के विकल्प उसके मस्तिष्क में उभरे। पुत्र मिलन पर्यन्त भोजन ग्रहण का परित्याग कर वह वहाँ से चला। कर्णावती पहुँचकर वह देवचंद्रसूरि के पास गया। गुरु के व्यवहार पर रुष्ट चाचिग अच्छी तरह से वंदन किए बिना ही अकड़कर बैठ गया। देवचंद्रसूरि मधुर उपदेश से उसे समझाने लगे। मंत्री उदयन चाचिग के आगमन की सूचना पाकर वहाँ पहुँच गए। मंत्री उदयन वाक्-निपुण था। वह श्रेष्ठी चाचिग को अत्यंत आत्मीयभाव से अपने साथ घर ले गया। उसके भोजन की समुचित व्यवस्था की। भोजन करा देने के पश्चात् मंत्री ने चांगदेव को उसकी गोद में बैठा दिया। साथ ही तीन दुकूल और तीन लाख मुद्राएँ भेंट कीं। चाचिग का हृदय देवचंद्रसूरि की मंगलकारक प्रियवाणी को सुनकर पहले ही कुछ अंशों में परिवर्तित हो गया था। उदयन मंत्री के शिष्ट और शालीन व्यवहार से वह अत्यधिक प्रभावित हुआ। उसने कहाµ‘मंत्रीवर! यह तीन लाख की द्रव्य राशि आपकी उदारता को नहीं, कृपणता को प्रकट कर रही है। मेरे पुत्र का मूल्य इतना ही नहीं है, वह अमूल्य है पर आपकी भक्ति भी उससे कम मूल्यवान् नहीं है। आपके द्वारा प्रदत्त मुद्राओं की द्रव्य राशि मेरे लिए अस्पृश्य है। आपकी भक्ति के सामने नतमस्तक होकर मैं अपने पुत्र की भेंट आपको चढ़ाता हूँ।’

(क्रमशः)