हर श्वास को धर्म-ध्यान के साथ जोड़ने का प्रयास करें: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 16 अगस्त, 2022
परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र की विवेचना करते हुए फरमाया कि आज से ढाई हजार वर्ष से भी अधिक समय से पहले भगवान महावीर विराजमान थे। भगवान महावीर का विचरण होता था। राजगृह नाम का नगर वहाँ भगवान महावीर पधारे। परिषद भी आई, भगवान ने प्रवचन भी किया। परिषद वापस नगर में चली गई। उस काल और उस समय में भगवान महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी शिष्य इंद्रमूर्ति गौतम भगवान की पर्युपासना करते, वे प्रश्न करते हैं कि भगवान ये छोटे प्राणी द्विन्द्रिय आदि छोटे-बड़े हैं, ये उच्छ्वास-निश्वास करते हैं, आन-अपान करते हैं, इसको तो हम जानते, देखते हैं। किंतु भगवान! जो स्थावर काय के जीव हैं, एकेन्द्रिय हैं, ये जीव हैं, ये श्वास लेते हैं, हमें कोई पता नहीं चल पा रहा है। ये भी श्वास लेते हैं क्या?
भगवान उत्तर देते हैं कि हाँ गौतम ये स्थावर के जीव भी आन-अपान, उच्छवास-निश्वास किया करते हैं। भले तुम्हें दिखाई न दे। आगम वाङ्मय में इंद्रियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण किया गया है-त्रस और स्थावर। जीव का एक मुख्य लक्षण है-श्वास। श्वास आ रहा है, तो जीव जिंदा है। साधु संस्था में कोई काल धर्म को प्राप्त हो जाए तो 36 मिनट पश्चात् नाक में रुई डालकर परीक्षण करने की परंपरा है कि श्वास आ रहा है या नहीं। अगर हम जैन शासन की दृष्टि से देखें तो ये तो स्थावर काय के जीव सजीव है। वैज्ञानिक जगत में सिर्फ वनस्पतिकाय की सजीवता की बात सिद्ध कर स्वीकार कर ली है। बाकी में वो मौन है।
प्रश्न किया गया कि ये जीव श्वास के रूप में वायु को लेते हैं, तो वायुकाय के जीव किसका श्वास लेते हैं? उत्तर दिया गया कि वायुकाय वायुकाय का ही श्वास लेती है। वायुकाय दो प्रकार का होता है-सजीव वायुकाय और निर्जीव वायुकाय। सजीव वायुकाय निर्जीव वायु का श्वास ले लेती है। पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल श्वास लेते हैं, यह विज्ञान से परे की चीज हैं, पर जैन शासन में इसका वर्णन है कि वे प्राणी भी श्वास लेते हैं। श्वास हमारे जीवन का एक लक्षण बना हुआ है। श्वास लेना जीवन के लिए प्रथम कोटि की अनिवार्यता है। पानी, भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा भी अनिवार्य है। श्वास सामान्य रूप में अपने आप आता है। इतनी जरूरी चीज सहजतया मिल रही है। हम ध्यान दें कि कैसे श्वास अच्छी तरह लिया जा सके, श्वास के साथ धर्म और अध्यात्म को जोड़ा जा सके। प्रेक्षाध्यान में श्वास से जुड़े अनेक प्रयोग हैं। दीर्घ श्वास, समवर्ती श्वास लेना, बीच में कुम्भक करना, पुरक-रेचक करना। ये ध्यान-प्राणायाम का अंग है। लंबा श्वास लेना और छोड़ना, श्वास लेते समय पेट फूलना चाहिए और छोड़ते समय पेट सिकुड़ना चाहिए। श्वास को धीरे-धीरे लें। जप को भी श्वास के साथ जोड़ सकते हैं। इससे मन की एकाग्रता अर्जित हो सकती है।
श्वास निकट का तत्त्व है। श्वास के साथ जप करते रहो। णमो सिद्धाणं का जप कायोत्सर्ग मुद्रा में करते रहें। स्थावर जीव श्वास लेते हैं, यह आदमी नहीं जानता है, पर जैन वाङ्मय में यह मान्य है। हम श्वास को ध्यान, धर्म एवं कल्याण के साथ जोड़ सकें, यह विशेष बात है। मन को श्वास के साथ एकाग्र कर लें। निर्जरा साधना का प्रयोग करते रहें। कालू यशोविलास की व्याख्या करते हुए महामनीषी ने फरमाया कि चूरू का एक मास का प्रवास कर मर्यादा महोत्सव-राजलदेसर करवा रहे हैं। वहाँ से बीदासर पधारकर भांजी महाराज को सेवा दर्शन का मौका दिराते हैं। कालूगणी की सरदारशहर पर विशेष कृपा रही है। राजलदेसर में पूज्यश्री के पैर में व्रण हो जाता है। वि0सं0 1975 का चतुर्मास वहीं करवाते हैं। व्रण भी काफी फैल जाता है। मगन मुनि उस व्रण के चीरा देकर साफ करते हैं। धीरे-धीरे विहार कर बीदासर पधार रहे हैं। रतनगढ़ में एक पंडित हरिनंदन जी कालूगणी के पास आते हैं। व्याकरण की बात चलती है। सरदारशहर में हरियाणा के लोग अर्ज करने पधारते हैं। चूरू टमकोर, तारानगर, राजगढ़ से हिसार पधारते हैं। टोहाना, उचाना मंडी पधारते हैं।
व्यवस्था समिति प्रचार-प्रसार मंत्री नरेंद्र नाहटा ने छापर चतुर्मास गीत के बारे में बताया। गीत की प्रस्तुति हुई। अनेक क्षेत्रों के संघ पूज्यप्रवर के दर्शनार्थ आए हुए हैं। सूरत निवासियों की प्रस्तुति हुई। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि ज्ञान और दर्शन आत्मा का स्वरूप है। मुनि विकास कुमार जी ने सुमधुर गीत की प्रस्तुति दी।