अपने कषायों को शांत रखना भी बड़ी साधना है: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अपने कषायों को शांत रखना भी बड़ी साधना है: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 19 अगस्त, 2022
मोक्ष प्राप्ति की कामना इच्छुक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र की अमृतवाणी का रसपान कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र के दूसरे अध्ययन के दूसरे शतक में प्रश्न किया गया कि भंते! समुद्घात कितने प्रज्ञप्त हैं? समुद्घात क्या है? आत्मा या जीव शरीर में रहता है। कुछ विशेष स्थितियों में जो आत्मा के अवयव-प्रदेश हैं, आत्म प्रदेश हैं, वे शरीर से बाहर भी निकलते हैं। जीव अपने आत्म-प्रदेशों का प्रक्षेपण करता है। उस क्रिया का नाम है-समुद्घात। प्रश्न है कि कित-किन परिस्थितियों में वे प्रदेश बाहर निकलते हैं? समुद्घात के सात प्रकार बताए गए हैं। पहला है-वेदना समुद्घात, जब जीव वेदना के अनुभव में परिणत होता है, उसके साथ एकाकी भाव स्थापित कर लेता है तो वो वेदनीय कर्म की उदीरणा कर लेता है, भविष्य में जो वेदनीय कर्म भोगने हैं, उनको पहले ही खींच के ले आता है। उदीरणा कर उन्हीं में उदय में लाकर उनका निर्जरण भी करता है, वो वेदना की स्थिति में वो आत्मा के प्रदेश कई बार बाहर निकल जाते हैं, वो वेदना समुद्घात है।
कई बार शरीर के किसी अंग में वेदना हो जाती है। ये वेदना जो होती है, वो हमारे पुराने पाप कर्म का फल है। वेदना में हम शांति-समता रखें वो अच्छा है। समता रखना धर्म की दृष्टि से भी अच्छी बात है, निर्जरा होती है। बाह्य चिकित्सा के साथ आध्यात्मिक चिकित्सा के रूप में कायोत्सर्ग, मंत्र का जाप आदि हो। दवाई के साथ आध्यात्मिक चिकित्सा भी काम कर सकती है। प्राणायाम-अनुप्रेक्षा भी साथ में चलती रहे। समता रखना महाफल है। दूसरा है-कषाय समुद्घात। जब क्रोध, मान, माया, लोभ इनमें आत्मा परिणत हो जाती है, ऐसे कषाय के समय कभी आत्मा के प्रदेश बाहर निकल सकते हैं। पहले वह शरीर का जो पोला भाग है, उसको भर देता है, बाद में उनको बाहर निकाल देता है। इस तरह वो कषाय का निर्जरण करता है। यह कषाय समुद्घात है। बड़ी साधना तो यह है कि हमारा कषाय शांत रहे। समता-वीतरागता में रहे। कषायमुक्ति ही मुक्ति का आधार है।
तीसरा है-मारणान्तिक समुद्घात। ये मृत्यु से थोड़ा पहले होता है। जब प्राणी का आयुष्य अंतर्मुहूर्त अवशेष रहता है, उस समय मारणान्तिक समुद्घात होती है, पर सभी के नहीं होती है। अंतिम समय में जब बहुत कष्टमय स्थिति प्राणी की बन जाती है, तो उस समय आत्मा के प्रदेश बाहर निकलते हैं। कई बार वो आत्मप्रदेश अगले जन्म में जहाँ जाना है, वहाँ तक चले जाते हैं। कई बार वो वहाँ जाकर वापस लौट आते हैं। शायद आदमी एक बार मरकर वापस जिंदा हो जाता है। कई एक बार मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, पर मरकर वापस जिंदा होने वाले दो बार भी मारणान्तिक समुद्घात कर लेते हैं, या हो सकता है। चौथा है-वैक्रिय समुद्घात। इस समुद्घात में विविध क्रिया, रूप निर्माण कर लिया जाता है। जीव अपना नया-नया रूप बना लेता है, वह वैक्रिय समुद्घात हो जाता है। जैसे स्थूलिभद्र की बात है। कई बार इसमें मंडप या प्रासाद का निर्माण भी किया जा सकता है।
पाँचवीं है-तेजस समुद्घात। जिसके पास तेजोलब्धि होती है वो अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर प्रक्षिप्त कर देता है। संख्यात योजन लंबे दंड का निर्माण कर लेता है। तेजोलेश्या दो प्रकार की होती है-कृष्ण लेश्या और शीतल लेश्या। किसी पर अनुग्रह भी किया जा सकता है तो कभी निग्रह भी किया जा सकता है। परमाणु शक्ति के दो उपयोग हैं-इनसे अच्छा निर्माणात्मक काम भी किया जा सकता है, तो विध्वंस भी किया जा सकता है। इसी प्रकार तेजोलब्धि से निर्माण और विध्वंस दोनों हो सकते हैं। जैसे गोशालक पर किसी ने तेजो लेश्या का उपयोग किया तो उसके विरुद्ध में भगवान ने उस पर शीतल लेश्या का उपयोग कर उसे बचाया।
छठा प्रकार है-आहारक समुद्घात। आहारक भी एक लब्धि होती है। वो साधु अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालता है। वह इसका प्रयोग संदेह निवारण के लिए करता है। चतुर्दशपूर्व धारक साधु अनंत गहन विषय में संदेह हो गया तो वह आहारक शरीर के रूप में पुतला निकालकर केवलज्ञानी के पास जाकर प्रश्न का उत्तर वापस लेकर उस साधु के शरीर में समाविष्ट हो जाता है।
सातवीं है-केवली समुद्घात। केवली समुद्घात तीर्थंकर के नहीं होती है, यह सामान्य केवली के हो सकती है, कारण ये करने की चीज नहीं है, अपने आप होती है। केवलज्ञानी है, उसे मोक्ष में जाना है, आयुष्य तो थोड़ा रह गया है, कर्म अभी ज्यादा है। थोड़े आयुष्य में शेष तीन कर्मों को भोगने के लिए वह सामंजस्य बिठाने के लिए, कर्मों को बराबर बैठाने के लिए केवली समुद्घात होता है। यह प्रक्रिया पूरी आठ समय की है। वो कर्मों को उतने में समय में भोगकर आयुष्य संपन्न होने पर मोक्ष चला जाता है। केवल अंतर्मुहूर्त आयुष्य होता है, तब केवली समुद्घात होती है। ये समुद्घात एक विशेष प्रक्रिया है, जिससे आत्मा के प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं।
कालू यशोविलास का महामनीषी ने विवेचन करते हुए फरमाया कि पूज्यश्री द्वारा हांसी में दो दीक्षाएँ हो रही हैं। भिवानी में चातुर्मासिक प्रवेश हो रहा है। अच्छा ठाट-बाट लगा है। महात्मा गांधी उस समय भिवानी आए हुए थे। पूज्य कालूगणी से मिलना चाहते थे, पर मिलना नहीं हो सका। जैन-जैनेतरों से भी संपर्क हो रहा है। धर्म का मेला लगा है। कार्तिक महीने में दीक्षा समारोह आयोजन का फरमाते हैं। दीक्षा को लेकर भिवानी में विरोध हो रहा है। प्रतिपक्ष द्वारा आंदोलन किया जा रहा है। भिवानी के प्रसिद्ध श्रावक द्वारकादास मगन मुनिजी से इस विषय में वार्ता करते हैं। मगन मुनिजी बोले हम तो दीक्षा कहीं दे देंगे पर हमारे जाने के बाद में तुम्हारा वर्चस्व नहीं रहेगा। तुम्हें तो भिवानी ही रहना है। द्वारकादास सजग हो जाते हैं। डंके की चोट दीक्षा करवाने का सोच लेते हैं। तेरापंथ समाज और विरोधियों दोनों में जोश है, संघर्ष की बात है। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।