आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

मनोबल कैसे बढ़ाएँ?

आगा खाँ का नाम तो आपने सुना ही होगा। बहुत बड़ा धनी व्यक्ति था वह। एक बार वह विदेश गया। फ्रांस की राजधानी पेरिस में वह लुट गया। यह समाचार शहर में फैला और आगा खाँ पत्रकारों से घिर गया। उन्होंने प्रश्नों की बौछार कर दी। क्या हुआ? कहाँ हुआ? कितने व्यक्ति थे? आपके मन पर इसका क्या असर है? आदि। आगा खाँ ने सोचा-ये पत्रकार लोग पता नहीं उलटा-सीधा क्या छाप दें। इन्हें तो ऐसी बात बतानी चाहिए, जिसका ये दुरुपयोग न कर सकें। वह मुसकुराता हुआ बोला-‘आप लोग पत्रों में यह संवाद दीजिए कि आगा खाँ फ्रांस की राजधानी पेरिस में निर्भय होकर घूम रहा है।’ पत्रकार देखते ही रह गए।
यह एक घटना है जो सबल मनोबल की प्रतीक है। क्योंकि जो स्थिति घटित होनी थी, वह तो घट गई। रोने-धोने या दीनता प्रकट करने से वह बदल तो नहीं सकती थी। फिर आगा खाँ ने जो कुछ कहा, वह यथार्थ भी था। क्योंकि पास में धन हो तो भय होता है। चोर का भय, टैक्स का भय, धोखेबाज लोगों का भय। न रहे बाँस और न बजे बांसुरी। भय का मूल निमित्त ही समाप्त हो जाए तो भय टिके भी कहाँ?
निर्भय होने की एक दूसरी प्रक्रिया भी है। उसमें और किसी का तो भय नहीं रहता, पर एक तत्त्व का भय रहता है। वह भी अच्छा है एक दृष्टि से। क्योंकि हम तो अनेकांतवादी हैं। एकांततः किसी भी तत्त्व को अच्छा या बुरा क्यों बताएँ? भय बुरा है, मन को दुर्बल बनाने वाला है तो एक दृष्टि से वह अच्छा भी है। इस संदर्भ में भी मैं एक घटना सुना रहा हूँ-
रोम की महारानी का हार खो गया। कीमती तो वह था ही, महारानी के मन पर चढ़ा हुआ था। बादशाह को जानकारी मिली। उसने पूरे शहर में घोषणा करवा दी कि जिस व्यक्ति को हार मिला हो, वह तीन दिन के भीतर हार लाकर सौंप दे, अन्यथा उसे मौत के घाट उतार दिया जाएगा।
हार कौन ले गया, पता नहीं चला। पर वह एक संन्यासी के हाथ लग गया। संन्यासी के मन में उसके प्रति कोई आकर्षण नहीं था, फिर भी उसने हार रख लिया और सोचा कि कोई लेने आएगा तो दे दूँगा। कुछ समय बाद संन्यासी ने राजाज्ञा से प्रसारित घोषणा सुनी। वह हार लेकर राजा के पास नहीं गया। तीन दिन बीत गए। हार के मिलने की आशा क्षीण होने लगी। चौथे दिन संन्यासी हार लेकर राजा के पास पहुँचा। बादशाह ने हार देखते ही पहचान लिया। हार उसे कब और कहाँ से मिला? यह पूछे जाने पर संन्यासी बोला-‘कहाँ से मिला इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दूँगा। दूसरी बात है कब मिला? जिस दिन यह गुम हुआ उसी दिन मेरे पास पहुँच गया।’ यह बात सुन बादशाह उत्तेजित होकर बोला-‘क्या तुमने घोषणा नहीं सुनी?’ संन्यासी ने कहा-‘सुनी जरूर थी। फिर भी मैं तीन दिन तक उसे लौटाने नहीं आया। यह सोचकर नहीं आया कि लोग कहेंगे मौत के डर से हार लौटा रहा है।’ आज चौथे दिन क्यों आया?’ इस प्रश्न के उत्तर में संन्यासी शांत भाव से बोला-‘मुझे मौत का भय नहीं पर पाप का भय तो है। किसी दूसरे की वस्तु मैं अपने पास रखता तो पापी नहीं हो पाता।’ अपनी घोषणा के अनुसार बादशाह से मृत्युदंड दे सकता था, पर वह संन्यासी के चरणों में प्रणत हो गया। जो व्यक्ति मौत से नहीं डरता, मौत उसके पास झटपट आ ही नहीं सकती।
यह घटना भी सबल मनोबल की सूचना देने वाली है। मनोबल की अपेक्षा हर स्थिति में रहती है। इसके लिए आप मनोबली व्यक्तियों से प्रेरणा लें। उनके प्रवचन सुनें और पढ़ें। मनोबल को बढ़ाने वाले विचार भले ही आपके मन से निकल जाएँ। उन शब्दों को आप भले ही भूल जाएँ। पर अशब्द संस्कारों को पकड़कर रखें। संस्कारां से अपने मन, प्राण और चेतना को भावित करें। इसी क्रम से मनोबल बढ़ाया जा सकता है।

साधना की सीधी पृष्ठभूमि: आहार-विवेक

साधना के साथ आहार का बहुत गहरा संबंध है। आहार जितना शुद्ध, सात्त्विक और सुपाच्य होता है, साधना उतनी ही ऊँची हो सकती है। प्रतिकूल आहार साधना के लिए विक्षेपकारी प्रमाणित हुआ है। इस दृष्टि से आहार-शुद्धि पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। आज के युग में आहार-शुद्धि का प्रश्न बहुत जटिल हो रहा है। आहार के उत्पादन और उससे भी आगे बढ़ें तो अर्थ के अर्जन से लेकर आहार करने तक की पूरी प्रक्रिया दूषित है। ऐसी स्थिति में साधकों को शुद्ध आहार कैसे उपलब्ध हो सकता है?
साधक साधना करता है। पर यथेष्ट परिणाम नहीं आता, इसका एक कारण प्रतिकूल भोजन भी है। कुछ लोग अनुकूल और प्रतिकूल भोजन का विवेक नहीं कर पाते। इसलिए इस विषय पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
मनुष्य अर्थ का अर्जन करता है, उसमें वह अपने स्वास्थ्य, शांति और जीवन को खो रहा है। कौन समझाए उसे? समस्या यहीं तक रुकी हुई नहीं है। भोजन पकाने और परोसने का भी एक तरीका होता है। शुद्ध भोजन भी पकाने और परोसने वाले की अशुद्ध भावधारा से दूषित हो जाता है। यह श्रुत और पठित ही नहीं, अनुभूत सत्य है। भोजन पकाने और करने के समय जो मानसिक प्रसत्ति रहती है, उसका प्रभाव शरीर और मन दोनों पर देखा जाता है।
आहार जीवन का अनिवार्य अंग है। कोई भी देहधारी प्राणी आहार के बिना जी नहीं सकता। यह तथ्य सही है फिर भी सापेक्ष है क्योंकि अंतराल गति में जीव अनाहार भी रहता है। एक शरीर को छोड़ने के बाद जीव अपने नए उत्पत्ति स्थान में जाकर उत्पन्न होता है, उस बीच के काल को अंतराल गति कहा गया है। उस काल में एक समय लगे तब तो आहार की अपेक्षा नहीं रहती, किंतु दो, तीन और चार समय वाली अंतराल गति में जीव को आहार के बिना ही रहना पड़ता है।
आहार के मुख्य तीन प्रकार हैं-ओज आहार, रोम आहार और कवल आहार। आज की हमारी चर्चा का प्रमुख विषय कवल आहार है। आहार के संदर्भ में साधुओं के लिए तीन प्रकार की एषणाएँ बताई गई हैं-गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा।
मुनि भिक्षा के लिए उपस्थित हो तो पहले गवेषणा करे। ‘गौरिव एषणा-गवेषणा’ जिस प्रकार गाय अपने खाद्य को ही ग्रहण करती है, अखाद्य को छोड़ देती है। इसी प्रकार मुनि भी सबसे पहले इस बात पर अपना ध्यान केंद्रित करे कि वह जो कुछ ग्रहण कर रहा है, उसके लिए ग्राह्य है या नहीं।
ग्रहणैषणा का मतलब है-आहार ग्रहण करते समय सूक्ष्मता से ध्यान देना कि वह किस रूप में, किन विचारों और व्यवहारों से आहार का ग्रहण कर रहा है।

(क्रमशः)