उपासना
(भाग - एक)
आचार्य हेमचंद्र
उदयन मंत्री ने प्रमुदित होकर श्रेष्ठी चाचिग को गले से लगाया और साधुवाद देते हुए कहाµ‘मुझे अर्पण अरने से तुम्हारे पुत्र का वह विकास नहीं होगा जो विकास गुरु चरणों में संभाव्य है। गुरु की सन्निधि में तुम्हारा यह पुत्र गुरुपद को प्राप्त कर बालेन्दु की तरह त्रिभुवन में पूज्य होगा। मंत्री उदयन के इस परामर्श को स्वीकार करता हुआ श्रेष्ठी चाचिग देवचंद्रसूरि के पास गया और उसने अपना पुत्र गुरु को समर्पित कर दिया। देवचंद्रसूरि ने उसे मुनि-प्रव्रज्या प्रदान की।
नवदीक्षित बालक चांगदेव का दीक्षा-नाम गुरु के द्वारा सोमचंद्र रखा गया था। मुनि सोमचंद्र अपने शीतल स्वभाव के कारण यथार्थ में सोमचंद्र ही थे। उनकी प्रतिभा प्रखर थी। तर्कशास्त्र, लक्षणशास्त्र एवं साहित्य की अनेक विध विद्याओं का उन्होंने गंभीर अध्ययन किया।
कुछ ही वर्षों में सोमचंद्र मुनि दिग्गज विद्वानों की गणना में आने लगे। गुरु ने धर्मधुरा-धौरेय श्रमण सोमचंद्र को योग्य समझकर वी0नि0 1636 (वि0 1166) वैशाख तृतीया के दिन मध्याह्न में आचार्य पद पर नियुक्त किया।
आचार्य पद प्राप्ति के समय सब प्रकार से ग्रह बलवान् थे एवं लग्न वृद्धिकारक थे। इस समय उनकी अवस्था इक्कीस वर्ष की थी। आचार्य पद प्राप्ति के बाद उनका नाम हेमचंद्र हुआ। आचार्य हेमचंद्र ने अपनी माता पाहिनी को भी इस अवसर पर आर्हती दीक्षा प्रदान की। उसे प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया। नवोदीयमान आचार्य हेमचंद्र की कीर्ति दिन-प्रतिदिन विस्तार पाने लगी।
राजवंश
आचार्य हेमचंद्र के जीवन में सिद्धराज जयसिंह और भूपाल कुमारपाल का योग वरदान रूप सिद्ध हुआ। गुजरात रत्न सिद्धराज से आचार्य हेमचंद्र का प्रथम मिलन अणहिल्लपुर पाटण में हुआ था। गुरु देवचंद्रसूरि के स्वर्गवास के बाद हेमचंद्राचार्य खम्भात से पाटण आए थे। उस समय पाटण पर चौलुक्य वंशी नरेश सिद्धराज जयसिंह का शासन था। एक बार का प्रसंग हैµअणहिल्लपुर पाटण के राजमार्ग पर बड़ी भीड़ के साथ राजारूढ़ नरेश को सामने से आते हुए देखकर आचार्य हेमचंद्र एक तरफ किसी दुकान पर खड़े हो गए थे। संयोग से नरेश का हाथी भी उनके पास आकर रुक गया। उस समय हेमचंद्र ने एक श्लोक बोलाµ
कारय प्रसरं सिद्ध! हस्तिराजमशंकितम्।
त्रस्यन्तु दिग्गजाः किं तैर्भूस्त्वयैवोद्धृता यतः।।
राजन! गजरात को निःसंकोच आगे बढ़ाओ। रुको मत। हाथियों के त्रास की आप चिंता न करें। इस धरती का उद्धार आपसे हुआ है। पाटणनाथ हेमचंद्र के बुद्धिबल से अत्यंत प्रभावित हुआ। उस दिन के बाद नरेश के निवेदन पर आचार्य हेमचंद्र का पदार्पण पुनः-पुनः राजदरबाद में होने लगा।
हेमचंद्राचाय्र ने ‘सिद्धहेमशब्दानुशासन’ नामक व्याकरण ग्रंथ रचा। इसके साथ इतिहास का मनोरम अध्याय निबद्ध है।
गुजरात रत्न सिद्धराज जयसिंह मालवा से विजय-माला पहनकर लौटे लक्ष्मी उनके चरणों में लोट रही थी। सब ओर से बधाईयाँ प्राप्त हो रही थीं। स्वागत गीत गाए जा रहे थे, पर सरस्वती के स्वागत के बिना उनका मन खिन्न था। मालव राज्य का मूल्यवान् साहित्य उनके कर-कमलों की शोभा बढ़ा रहा था, पर उनके पास न कोई अपनी व्याकरण और न जीवन को मधुर रस से ओत-प्रोत कर देने वाली काव्यों की अनुपम संपदा थी। मालव ग्रंथालय के एक विशाल ग्रंथ को देखकर सिद्धराज जयसिंह ने पूछाµ‘यह क्या है?’ ग्रंथालय में नियुक्त पुरुषों ने कहाµ‘राजन! यह भोज नरेश का स्वरचित सरस्वती कंठाभरण नामक विशाल व्याकरण है। विद्वद् शिरोमणि नरेश भोज शब्दशास्त्र, अलंकारशास्त्र, निमित्तशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, राज सिद्धांत, वास्तु विज्ञान, अंकशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र आदि अनेक ग्रंथों के रचनाकार थे। प्रश्न चूड़ामणि मेघमाला, अर्थशास्त्र आदि ग्रंथ भी उनके हैं।
(क्रमशः)