आत्मा के आसपास
प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा
वृत्तियों का शोषण: विचारों को पोषण
हम संज्ञा कहें या वृत्ति, हमारा काम होना चाहिए। इन चारों वृत्तियों में आहार और निद्रा प्राणी के लिए प्राण भी हो सकते हैं और प्राणहर भी। इनके बिना किसी का काम नहीं चलता, इस दृष्टि से ये प्राण हैं। छोटा प्राणी हो या बड़ा, मजदूर हो या मालिक, साधु हो या तीर्थंकर, भोजन की जरूरत सभी को रहती है। भोजन के प्रसंग में विवेक न हो तो वही तालपुट जहर बन जाता है। दशवैकालिक सूत्र में कहा-
विभूसा इत्थिसंसग्गी, पणीयरस-भोयणं।
नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा।।
-विभूषा, स्त्रीसंसर्ग और प्रणीत रसवाला भोजन आत्मा की खोज में निकले हुए व्यक्ति के लिए, शीघ्रघाती जहर के समान है। साधक ऐसे गरिष्ठ भोजन का परिहार करे, जो उसकी साधना में विघ्न उपस्थित करता है।
आहार के बाद दूसरी वृत्ति है-नींद। नींद न आए तो व्यक्ति बीमार हो जाता है। अच्छी नींद स्वास्थ्य का लक्षण है। स्वास्थ्य साधना में सहायक तत्त्व है। स्वास्थ्य के लिए भोजन और नींद दोनों का विवेक आवश्यक है। क्योंकि एक नींद ऐसी भी है, जिसका नाम है ‘स्त्यानर्द्धि’। स्त्यानर्द्धि निद्रा एक गहरी मूर्च्छा की स्थिति है। यह नींद जिस व्यक्ति को आती है, उसे निश्चित रूप से नरकगामी माना गया है। यह निद्रा साधना में तो बाधक है ही, इससे चेतना पर मूर्च्छा की इतनी गहरी तहें जम जाती हैं कि अस्तित्व-बोध भी कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से यह तथ्य स्पष्ट है कि आहार और निद्रा साधना में साधक भी हैं और बाधक भी।
जिस व्यक्ति की साधना परिपक्व हो जाती है, जो प्रारंभिक स्टेजों को पार कर ऊपर चढ़ जाता है, वह प्रतिकूल भोजन को भी अनुकूल बना सकता है। जहर को अमृत बनाने की बात हम सुनते हैं, यह केवल कल्पना नहीं है। साधना से ऐसी शक्ति अर्जित की जा सकती है जो जहर को अमृत में रूपायित कर देती है, आग को पानी बना देती है। जब तक ऐसी शक्ति प्राप्त नहीं होती है, तब तक विवेक-चेतना के द्वारा ही समस्या का समाधान करना होगा।
प्रश्न यह है कि विवेक-चेतना का विकास कैसे हो? इस संबंध में गहराई से सुनने, समझने, प्रयोग करने और अनुभव करने से विवेक जागता है। पर कठिनाई यह है कि आज खाना ही सब कुछ हो गया है। जिन लोगों को घर में बना भोजन रुचिकर नहीं लगता है या घर में बनाने की व्यवस्था नहीं होती है, वे होटलों में जाकर खाते हैं। अवकाश के दिन तो सामूहिक रूप से होटल में खाने की परंपरा बढ़ रही है। वह भोजन जीभ को स्वादिष्ट लग सकता है, पर उसे खाने वाले व्यक्ति यह नहीं सोचते कि यह भोजन बना कैसे है? और इसे बनाने वाले कौन हैं? इसमें किन पदार्थों को काम में लिया गया है? यह कैसे वातावरण में बना है? इसका परिणाम क्या आएगा? आदि। भोजन के संदर्भ में इन सब बिंदुओं पर गहराई से विचार किया जाए और खाद्य-संयम का प्रयोग होता रहे तो बहुत बड़ी समस्या का समाधान निकल सकता है।
भीड़ में भी अकेला
साधक अकेला रहे या समूह में? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न का समाधान आगम के आलोक में यह मिलता है-‘एत्थ दो नया निच्छयनओ ववहारनओ य।’ किसी भी विवादास्पद प्रश्न को एक ही कोण से देखने पर समाधान नहीं मिलता। समाधान की अनेक दिशाएँ हैं। कम-से-कम दो दिशाएँ हैं-निश्चय और व्यवहार। निश्चयनय एक सचाई है। इसके अनुसार व्यक्ति अकेला आता है, अकेला जाता है, अकेला सुख-दुःख का भोग करता है और अकेला ही साधना करता है। इस भावना का प्रतिनिधित्व करने वाला एक राजस्थानी दोहा-
आप अकेला अवतरै मरै अकेला होय।
यूं कबहू इण जीव रो साथी सगो न कोय।।
यह वास्तविकता है। इस सच्चाई को भूलने से बहुत बड़ी दुविधा उत्पन्न हो जाती है। कोई व्यक्ति यह सोचे कि मेरे बिना उसका काम नहीं चलता या उसके बिना मेरा काम नहीं चलता, यह उसका मानसिक भ्रम है। सच्चाई यह है कि किसी का काम किसी के बिना रुका नहीं रहता। जन्म और मृत्यु का प्रवाह बहता है। हर व्यक्ति इस प्रवाह में बहकर अदृश्य हो जाता है और संसार का काम ज्यों-का-त्यों चलता रहता है। फिर यह रात-दिन की चिंता और बेचैनी क्यों? एकत्व अनुप्रेक्षा का विस्मृत कर देने से यह परेशानी खड़ी होती है। वास्तव में व्यक्ति स्वयं का स्वामी है। इसलिए वह अकेला रहना सीखे और अकेला जीना सीखे। शक्तिशाली व्यक्ति सदा ही अकेला रहता है। जंगल का शेर कब सोचता है-
एकोऽहमसहायोऽहं, कृशोऽहमपरिच्छदः।
स्वप्नेऽप्येवंविधा चिंता कि मृगेन्द्रस्य जायते?
- मैं अकेला हूँ, असहाय हूँ, कृश हूँ, मेरा कोई परिवार नहीं है, इस प्रकार की चिंता सिंह को कभी स्वप्न में भी होती है क्या?
शेर भी एक प्राणी है और मनुष्य भी एक प्राणी है। मनुष्य क्या शेर से कम शक्तिशाली है? वह अनंत शक्तिशाली है। इसलिए उसे अकेलेपन का भय कभी होना ही नहीं चाहिए।
संत इकहार्ट जंगल में किसी वृक्ष के नीचे शांत भाव से बैठा था। उसका कोई पुराना मित्र उधर से गुजरा। उसने देखा इकहार्ट अकेला बैठा है। वह उसके पास जाकर बैठ गया और बोला-‘शायद आप अकेले बैठे-बैठे ऊब रहे हैं, यह सोचकर मैं आपके पास आया हूँ।’ संत बोला-‘भाई! मैं अकेला कहाँ था? मैं तो अपने साथ था। मेरा प्रभु मेरे साथ था। तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया। अब मेरा मैं अर्थात् मेरा प्रभु मुझसे छूट गया।’ कितना गहरा रहस्य है इस अभिव्यक्ति में? इस रहस्य को वे ही समझ सकते हैं जो अकेले जीने की कला जानते हैं। समूह में बंधा हुआ व्यक्ति न तो इस रहस्य को समझ पाता है और न अकेलेपन के सुख का अनुभव कर सकता है।
एकत्व भावना की अनुप्रेक्षा करने से द्वैत से उभरने वाली समस्या का समाधान हो सकता है। इस संदर्भ में आगम की एक कहानी है, जो बहुत प्रेरक है-
(क्रमशः)