उपासना
(भाग - एक)
आचार्य हेमचंद्र
राज्यारोहण के बाद कुमारपाल ने राज्य की स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए सपादलक्ष देश के उद्धत नरेश अर्णोराज पर ग्यारह बार आक्रमण किया। हर बार उसे असफलता प्राप्त हुई। मंत्री वाहड़ की सलाह से जैन धर्म की शरण स्वीकार कर बारहवीं बार उसने अर्णोराज पर आक्रमण किया। इस युद्ध में वह विजयी बना। यह समय वी0नि0 1677 (वि0 1207) के आसपास बताया गया है। प्रस्तुत घटना-प्रसंग से नरेश की धार्मिक आस्था जैनधर्म के प्रति और अधिक दृढ़ हो गई। अर्णोराज पर विजय प्राप्त करने के बाद नरेश कुमारपाल हेमचंद्राचार्य की सन्निधि में पहुँचा। हेमचंद्राचार्य ने नरेश को अनेक अहिंसा प्रधान जीवनोपयोगी शिक्षाएँ दीं। उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर नरेश ने मांसाहार-परिहार आदि कई नियम लिए।
नरेश कुमारपाल करुणार्द्र हृदय था। हेमचंद्राचार्य के संपर्क ने उसे अध्यात्मोन्मुख बना दिया था। उस समय पूर्वजों से चली आ रही राजपरंपरा के अनुसार पति वियुक्ता महिला का समग्र धन राजपुरुषों द्वारा ग्रहण कर उसे राजकोष में पहुँचा दिया जाता था। नरेश कुमारपाल ने इस विधान को अवैध बताया और अमान्य ठहराया। पुत्रहीना, दीना, दुःखिता, विधवा महिला के धन को अग्रहणीय घोषित कर कुमारपाल ने साहस के साथ जिस स्वस्थ नीति और स्वस्थ परंपरा की स्थापना की, वह जैनधर्म में प्रतिपादित अभय, अहिंसा और अपरिग्रह की दिशा में श्रेष्ठ कदम था।
आचार्य हेमचंद्र का बढ़ता प्रभाव कइयों के लिए असह्य हो गया। एक दिन कुमारपाल से कुछ व्यक्तियों ने कहाµ‘हेमचंद्र अपने ही इष्टदेव की आराधना करता है और मत को श्रेष्ठ समझता है। इतरदेव को महत्त्व प्रदान नहीं करता।’ उदारमना कुमारपाल को यह बात अखरी। एक दिन नरेश ने हेमचंद्र को सोमेश्वर की यात्रा में चलने के लिए कहा। प्रत्युत्तर में हेमचंद्र तत्काल अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुए बोलेµ‘राजन! भूखे आदमी को आग्रहपूर्वक निमंत्रण देने की बात ही कहाँ है। हम मुनिजनों के लिए तीर्थाटन प्रमुख है। इस कार्य के लिए मैं सहर्ष तैयार हूँ।’ राजा ने सुखपाल आदि वाहन का प्रयाग करने के लिए कहा, पर आचार्य हेमचंद्र ने इस सुविधा का आश्रय नहीं लिया। वे बोलेµ‘राजन! पदयात्रा के द्वारा ही तीर्थों के पुण्य का लाभ प्राप्त करेंगे।’
सोमेश्वर के मंदिर में पहुँचकर हेमचंद्राचार्य ने श्लोकों के द्वारा शिव की स्तुति की।
भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै।।
भव बीज को अंकुरित करने वाले राग-द्वेष पर जिन्होंने विजय प्राप्त कर ली है, भले वे ब्रह्मा, हरि और जिन किसी भी नाम से संबोधित होते हों, उन्हें मेरा नमस्कार है।
महारागो महाद्वेषो, महामोहस्तथैव च।
कषायश्च हतो येन, महादेवः स उच्यते।।
जिनने महाराग, महाद्वेष, महामोह और कषाय को नष्ट किया है, वही महादेव है।
हेमचंद्राचार्य के योग से कुमारपाल अध्यात्म की ओर अग्रसर होता गया। वह अपने जीवन में सातों व्यसनों से मुक्त हो गया था। नवरात्रि आदि के उत्सव-प्रसंगों पर उसने पशुवध पर पूर्णतः प्रतिबंध लगाए एवं नागरिकजनों को व्यसन परिहार हेतु निर्देश दिए। कुमारपाल ने अपने अधीनस्थ अठारह देशों में चौदह वर्ष तक के लिए अमारि की घोषणा करवाई। वह स्वयं विक्रम संवत् 1216 में मृगसर शुक्ला द्वितीया के दिन सम्यक् रत्न को स्वीकार कर बारह व्रतधारी श्रावक बना था।
समय-संकेत
कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र की कुल आयु चौरासी वर्ष की थी। संयम-साधना के छिहत्तर वर्ष के काल में तिरसठ वर्ष तक आचार्य पद का दायित्व कुशलतापूर्वक वहन किया। आचार्य हेमचंद्र का स्वर्गवास वी0नि0 1699 (वि0 1226) गुजरात प्रांत में हुआ। आचार्य हेमचंद्र का युग जैनशासन के महान् उत्कर्ष का युग था।
(क्रमशः)