संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(20) सदसतोर्विवेकेन, स्थैर्यं चित्तस्य जायते।
स्थितात्मा स्थापयेदन्यान्, नाऽस्थिरात्माऽपि साक्षरः।।
सत् और असत् का विवेक होने पर चित्त की स्थिरता होती है। स्थितात्मा दूसरों को धर्म में स्थापित करता है। जो स्थितात्मा नहीं होता, वह साक्षर होने पर भी कार्य नहीं कर सकता।
(21) भविष्यति मम ज्ञानं, अध्येतव्यमतो मया।
अजानन् सदसत्तत्वं, न लोकः सत्यमश्नुते।।
‘मुझे ज्ञान होगा’, इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। जो जीव सत् और असत् तत्त्वों को नहीं जानना, वह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता।
(22) लप्स्ये चित्तस्य सुस्थैर्यं, अध्येतव्यमतो मया।
अस्थिरात्मा पदार्थेषु, जानन्नपि विमुह्यति।।
‘मैं एकाग्र चित्त बनूँगा’µइस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। अस्थिर आत्मा वाला व्यक्ति पदार्थों को जानता हुआ भी उनमें मूढ बन जाता है।
(23) आत्मानं स्थापयिष्यामि, धर्मेऽध्येयमतो मया।
धर्महीनो जनो लोके, तनुते दुःखसन्ततिम्।।
‘अपनी आत्मा को धर्म में स्थापित करूँगा’µइस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। जो व्यक्ति धर्महीन है, वह संसार में दुःख की परंपरा को बढ़ाता है।
(24) स्थितः परान् स्थापयिष्ये, धर्मेऽध्येयमतो मया।
आचार्येव सदाचारं, प्रस्थापयितुमर्हति।।
‘मैं स्वयं स्थिर होकर दूसरों को धर्म में स्थापित करूँगा’µइस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। आचारवान् व्यक्ति ही सदाचार की स्थापना कर सकता है।
इन श्लोकों में ‘शिक्षा क्यों’ का सुंदर समाधान दिया गया है। आज की शिक्षा का उद्देश्य है विषय का ज्ञान, बौद्धिक विकास।
प्राचीन काल में शिक्षा के चार मुख्य उद्देश्य थेµ
(1) ज्ञान-प्राप्तिµइससे बौद्धिक विकास के साथ-साथ सत्-असत् का विवेक भी जागृत होता है।
(2) मानसिक एकाग्रताµइससे लक्ष्य-प्राप्ति की ओर सहज गति करने की क्षमता बढ़ती है, अपने आप पर नियंत्रण और धैर्य का विकास होता है।
(3) धर्माचरणµज्ञान की प्राप्ति श्रेय के प्रति प्रस्थान के लिए सहज-सरल मार्ग प्रस्तुत करती है। आगमों में कहा हैµ
‘अन्नाणी किं काही, किं वा नाहीइ छेयपावगं’।
अज्ञानी क्या करेगा? वह श्रेयः और पाप को कैसे जानेगा?
धर्महीन व्यक्ति न वर्तमान को सुखी बना सकता है और न अनागत को।
(4) दूसरों को धर्म में प्रेरित करनाµज्ञानी व्यक्ति ही विभिन्न व्यक्तियों को समझाकर धर्म में स्थापित कर सकते हैं। जो स्वयं आचारवान् नहीं होता वह दूसरों को आचार में स्थापित नहीं कर सकता।
शिक्षा-प्राप्ति के इन चार उद्देश्यों से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। एकांगी विकास उपादेय नहीं हो सकता।
(क्रमशः)