उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य जिनचंद्र सूरि (मणिधारी)

जैन जगत में सुप्रसिद्ध दादाओं में दूसरे दादा का नाम था जिनचंद्र सूरि। इनका जन्म 1197 भाद्रपद शुक्ला अष्टमी को विक्रमपुर जैसलमेर के निकट हुआ। पिता का नाम था शाह रासमलजी और माता का नाम था देल्हण देवी। कहा जाता है कि इनकी दीक्षा छह वर्ष की आयु में सं0 1203 फाल्गुन शुक्ला नवमी को अजमेर में जिनदत्त सूरि के हाथ से हुई और आचार्य पद मात्र आठ वर्ष की आयु में सं0 1205 वैशाख शुक्ला षष्ठी विक्रमपुर में जिनदत्त सूरि ने दिया। अंत में संवत् 1223 भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी को दिल्ली (महरौली) में दिवंगत हुए। जीवन काफी प्रभावपूर्ण रहा। अनेक चामत्कारिक घटनाएँ इनके जीवन में घटीं। दो घटनाएँ इस प्रकार हैं-
(1) एक बार संघ सहित विहार हो रहा था। वोरलीदान नाम के ग्राम के निकट संघ का पड़ाव हुआ। अचानक वहाँ एक डाकुओं का काफिला आने का संवाद मिला। सारे भयभीत हो गए। सूरिजी को जब पता लगा तब अपने मंत्रबल से डंडे को अभिषिक्त करके एक रेखा खींच दी। रेखा का ही चमत्कार समझो। संघ ने डाकुओं को देखा पर डाकू संघ को नहीं देख सके। संघ पूर्णतः सुरक्षित रहा।
(2) श्री जिनदत्त सूरि ने जिनचंद्र से कहा था-तुम योगिनीपुर (दिल्ली) मत जाना। वहाँ जाने से गुरुजी ने अपने ज्ञानबल से शिष्य के मृत्युयोग पड़ता जाना था। संयोग की बात, सूरिजी ससंघ वहाँ के आसपास विहार करने लगे। उसी दिशा में लोगों के अत्यधिक गमनागमन से भेद पाकर दिल्ली के महाराज मदनपाल ने दिल्ली आने की बहुत ही भावपूर्ण प्रार्थना की। महाराज का आग्रह और श्रावक संघ के संघ-प्रभावना की संभावना से किए गए निवेदन को सूरिजी टाल नहीं सके। दिल्ली में प्रवेश कर दिया। महाराज के योग से संघ की अच्छी प्रभावना हुई। वहीं अंतिम समय निकट जानकर सूरिजी ने कहा-मेरा अग्नि संस्कार शहर से जितना दूर करोगे उतनी ही आबादी बढ़ जाएगी। पर ध्यान रखना मेरी रथी को बीच में कहीं विश्राम मत देना। यदि विश्राम दे दिया तो वह रथी वहाँ से नहीं उठ सकेगी। एक बात और है मेरे मस्तक में जो मणि है वह मणि संस्कार के समय निकल कर कहीं आसपास पड़े दूध के पात्र में गिर जाएगी। अतः ध्यान रखना। अंत में वही हुआ। महाप्रयाण के बाद जब बहुत ही साज-सज्जा के साथ शोभा यात्रा चलने लगी तब परंपरा के अनुसार बीच में विश्राम किया। बस फिर क्या था, वहाँ से रथी नहीं उठ सकी। महाराज मदनपाल के हाथी भी अपना पूरा जोर लगाकर थक गए पर रथी नहीं हिली। वहीं दाह-संस्कार करना पड़ा। संस्कार करते समय मणि निकलकर एक योगी के पास रखे दूध के पात्र में जा गिरी। सूचना संघ उस समय शोक में संतप्त था। मणि का ध्यान भी किसी ने नहीं दिया।

उपाध्याय यशोविजयजी

हरिभद्र, हेमचंद्र, क्षमाश्रमण आदि सुप्रसिद्ध जैनाचार्यों के बाद की शंृखला में यशोविजयजी का नाम बहुत ही प्रसिद्ध है। इनका जन्म 1665 में तथा स्वर्गवास 1745 में हुआ। ये बहुत ही व्युत्पन्नमति थे। इन्हें अनेक विषयों का तलस्पर्शी अध्ययन था तथा ये अधिकारी प्रवक्ता थे। यहाँ तक सुना जाता है कि 1729 में इन्होंने खम्भात में वर्षावास बिताया। वहाँ जैनेतर विद्वानों द्वारा किए गए विषय पर संस्कृत भाषा में इतना धाराप्रवाह व्याख्यान दिया जिसे सुनने वाले सारे अवाक् थे। भाषण की विशेषता यह थी कि जिसमें न तो अनुस्वार था और न ही कोई संयुक्त अक्षर। इनकी वर्णना शक्ति बड़ी विचित्र थी। संवत् 1730 के जामनगर चातुर्मास में मात्र ‘संजोगा विप्पमुक्कस्स’ पर ही चार महीनों तक व्याख्यान दिया। विकस्वर प्रतिभा का परिचय तो इसी में मिल जाता है कि काशी में इन्होंने एक दिन में सात सौ शार्दूल विक्रीडित छंद कंठस्थ किए। ये सहòावधानी भी थे। गणितप्रधान एक हजार प्रश्नों का समाधान पाकर काशी के विद्वानों ने इन्हें ‘न्याय विशारद’ के पद से विभूषित किया। इन्होंने लगभग सौ ग्रंथों की रचना की। ये लघु हरिभद्र सूरि कहलाए।

(क्रमशः)