आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

केवल सुनने की मंजिल नहीं

ध्यान-शिविर कोई पुस्तक नहीं है जो 100 पृष्ठ का सारांश दो पृष्ठों में लिखकर समझा दिया जाए। यहाँ तो प्रत्येक तत्त्व को अनुभव के स्तर पर जानने, समझने और प्रयोग करने की बात सोचकर ही प्रवेश पाना चाहिए। क्योंकि केवल सुनने या जानने से मंजिल प्राप्त नहीं हो सकती।
जिन लोगों के मन में शांत, स्वस्थ और एकाग्र बनने की अभिरुचि जग गई है वे सब आकर्षणों को छोड़कर अपने आपको साधना के लिए समर्पित कर दें। फिर देखें उसका क्या परिणाम आता है। किसी भी प्रक्रिया मे स्वयं को खपाए बिना उसके परिणाम जानने या उससे लाभान्वित होने की बात पूरी कैसे हो सकती है? मरने के बाद जिस स्वर्ग की प्राप्ति है, उसे जीते-जी कैसे पाया जा सकता है?
दो मित्र थे। काफी घनिष्ठता थी उनमें। एक मित्र मरकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। उसने अपने मित्र को स्वप्न में दर्शन दिया। वह बोलाµ‘तुम कहाँ हो?’ उसने उत्तर दियाµ‘मैं स्वर्गलोक में हूँ।’ वहाँ क्या है? मित्र का दूसरा प्रश्न था। ‘यहाँ रत्नजडित विमान है, प्रकाश है, आनंद है और मनोरंजन के नए-नए साधन हैं।’ यह सुनकर मित्र का मन ललचा गया। वह बोलाµ‘मित्र! कुछ क्षण के लिए मुझे भी वे दृश्य दिखा दो, उस आनंद का अनुभव करा दो। देव मित्र मुसकुराकर बोलाµ‘जिस स्थिति को मैंने मरकर पाया है उसे तू जीते-जी कैसे पा सकेगा?’ जहाँ स्वयं के खपने और तपने से तत्त्व मिलता है, वहाँ केवल दर्शक बनकर बैठने से क्या होगा?
कुछ लोग नियमित रूप से ध्यान की साधना करें, फिर भी उनमें रूपांतरण न हो, यह भी संभव है। क्योंकि उनके संस्कार इतने सघन होते हैं जो एक-दो बार के प्रयोग से नहीं टूटते। उन्हें बार-बार प्रयत्न करना होगा और गहरी आस्था के साथ जीवन में धर्म के तत्त्वों का प्रयोग करना होगा। प्रयोग के बिना यहाँ आने का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।
स्वभाव-परिवर्तन या जीवन को सुसंस्कारी बनाने का साधन हैµध्यान। कभी-कभी ध्यान-साधना के बिना भी कुछ अच्छी बातें घटित हो जाती हैं। किसी अनुभवी व्यक्ति के दो-चार बोल ही मन को इतना छू लेते हैं कि उनसे अच्छे संस्कार जम जाते हैं।
गुजरात के संत दादा रविशंकर महाराज एक बार गरीबों को गुड़ बाँट रहे थे। गरीब माँ की एक फटेहाल लड़की उधर से गुजरी। दादा ने उसकी ओर उन्मुख होकर कहाµ‘इधर आ बेटी! तू भी गुड़ लेती जा।’ लड़की रुकी और शांत भाव से बोलीµ‘दादा, मेरी माँ ने कहा है कि भगवान ने हमको दो हाथ दिए हैं काम करने के लिए तो मुफ्त में क्यों खाना?’ छोटी-सी बच्ची के मुँह से इतनी गहरी बात सुनकर रविशंकर महाराज विस्मित हो गए।
यह प्रसंग इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि जिस व्यक्ति के कुसंस्कार प्रगाढ़ नहीं होते, उस पर किसी भी कथन का अमिट प्रभाव रह सकता है। लड़की की माँ न तो विशेष पढ़ी-लिखी थी और न ही वह कोई विशिष्ट साधिका थी। फिर भी उसके अंतःकरण से निकले हुए शब्द लड़की के संस्कारों को प्रगाढ़ बना गए और उसने मुफ्तखोर नहीं बनने का संकल्प कर लिया।
अब बात यह रही कि शिविर-काल में तो बराबर प्रशिक्षण मिलता रहता है। घर जाने के बाद क्रम कैसे बनेगा? मैं सोचता हूँ कि इस प्रश्न को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यहाँ दस दिन तक जो खुराक मिलती है, उससे लंबे समय तक पोषण मिल सकता है। संगरूर के सत्र न्यायाधीश थेµलाला दौलतरामजी। वे वर्ष में एक बार आते और दो-तीन दिन रहकर चले जाते। वे आते ही बोलतेµ‘आचार्यश्री! पिछले वर्ष मैं आपके पास आया और यहाँ से खुराक लेकर गया। वर्ष भर में वह खुराक चुक गई तो अब फिर पहुँच गया हूँ आपके दरबार में। यहाँ से खुराक पाकर जाऊँगा और उसके सहारे अपना काम चलाता रहूँगा।
यह ग्राहक की ग्रहण-शक्ति पर निर्भर करता है कि वह कितना पाथेय ले सकता है। जो साधक सूक्ष्मता से तत्त्व को ग्रहण करेंगे, उन्हें वर्ष भर का संबल मिल जाएग और जिनमें ऐसी क्षमता नहीं है, वे जितनी खुराक ग्रहण कर सकें, करें। जब भी उन्हें अनुभव हो कि हमारा पाथेय चुक गया है, वे पुनः शिविर में साधना करने के लिए तत्पर रहें। इस प्रकार उन्हें आगे-से-आगे प्रेरणा मिलती रहेगी।

शक्ति-संगोपन की साधना

शक्ति-संवर्धन और शक्ति-संगोपन ये दो बातें हैं। साधना के द्वारा शक्ति का अर्जन और संवर्धन किया जाता है तो उसके संगोपान में भी बहुत बड़ी साधना की अपेक्षा है। प्राचीनकाल में साधना के विशिष्ट प्रयोग से होने वाले शक्ति-संवर्धन को नियंत्रित रखने के लिए साधकों को यह सिखाया जाता था कि वे शक्ति के प्रयोग में विवेक से काम लें। गंभीरचेता व्यक्ति ही प्राप्त शक्ति का संगोपन कर सकता है। जो साधक शक्ति का प्रयोग कर लेता है, उसे कड़ा प्रायश्चित्त स्वीकार करना होता है। अन्यथा साधक विराधक हो जाता है, उसकी साधना विफल हो जाती है, परिश्रमपूर्वक काता हुआ सूत पुनः कपास बन जाता है।
आराधना का अर्थ हैµसाधना की सफलता। साधना विफल उनकी होती है जो विराधक बनते हैं। विराधना कौन करता है? आगम इस प्रश्न को उत्तरित करते हुए कहते हैंµ‘मायी कुव्वइ नो अमायी’ जो मायावी अर्थात् सकषायी होता है, साधना का प्रदर्शन करने वाला होता है, चमत्कार दिखाने की इचछा रखता है, ऐन्द्रजालिक होता है, वह शक्ति का प्रयोग करता है और ऐसा करके वह अपनी साधना की विराधना करता है। शक्ति के प्रयोग पर जितना नियंत्रण अर्हतों ने किया है, ज्ञानी पुरुषों ने किया है, दूरदर्शितापूर्ण सूझ-बूझ से किया है।
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि जहाँ विरोधी व्यक्ति शक्ति का प्रयोग करे, वहाँ अपनी सुरक्षा की दृष्टि से अथवा सामने वाले व्यक्ति पर प्रभाव छोड़ने की दृष्टि से शक्ति का प्रयोग सम्मत है या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर के जीवन का एक प्रसंग स्मरणीय है। घटना उस समय की है जब वे तीर्थंकर बन गए थे। उनके प्रतिद्वंद्वी गोशालक ने उनके सामने खड़े दो साधुओं को भस्म कर दिया। उनके पास अपार शक्ति थी, फिर भी उन्होंने साधुओं की सुरक्षा हेतु उसका प्रयोग नहीं किया। क्योंकि वे इस बात को जानते थे कि आज मैं शक्ति का प्रयोग करूँगा तो यह रास्ता सदा के लिए खुला रह जाएगा। ऐसे अवसर पर शक्ति का संगोपन कर मुझे अपने साधक साधु-साध्वियों को एक नई दिशा दिखानी है। वह दिशा यह है कि मुनि आक्रमण तो करे ही नहीं, प्रत्याक्रमण भी न करे। वह अपने बचाव के लिए भी शक्ति का प्रयोग न करे।

(क्रमशः)